अतः गीताने अहम्को इदंतासे कहा है; जैसे‒‘एतद्यो वेत्ति’ (१३ । १) । ‘इदम्’ (यह) कभी ‘अहम्’ (मैं) नहीं होता; अतः अहम्को इदंतासे कहनेका तात्पर्य
है कि यह अपना स्वरूप नहीं है । परन्तु जब चेतन (जीव) इस अहम्के साथ अपना सम्बन्ध
मान लेता है, तब वह बँध जाता है ।
अहम्के सम्बन्धसे परिच्छिन्नता पैदा
होती है और परिच्छिन्नतासे सम्पूर्ण भेद पैदा होते हैं । भेदोंमें मैं-मेरेका भेद मुख्य
है, जिसको अहंता और ममता नामसे कहा गया है । मैं-मेरेका भेद
आठ प्रकारका है‒मैं और मेरा, तू और तेरा, यह और इसका, वह और उसका । मैं, तू, यह, वह‒ये चारों अहंताके रूप हैं और मेरा, तेरा, इसका, उसका‒ये चारों ममताके रूप हैं ।
मैं, तू, यह और वह‒ये चारों ही एक-दूसरेकी दृष्टिमें चारों बन सकते
हैं । जैसे‒राम, श्याम, गोविन्द और गोपाल‒ये चार व्यक्ति हैं । राम और श्याम एक-दूसरेके
सामने हैं, गोविन्द उनके पास है और गोपाल उनसे
दूर है । राम अपनेको ‘मैं’ कहता है, अपने सामनेवाले श्यामको ‘तू’ कहता है, पासवाले गोविन्दको ‘यह’ कहता है और दूरवाले गोपालको ‘वह’ कहता है । अगर श्याम अपनेको ‘मैं’ कहे तो वह रामको ‘तू’ कहेगा, गोविन्दको ‘यह’ कहेगा और गोपालको ‘वह’ कहेगा । अगर गोविन्द अपनेको ‘मैं’ कहे तो वह श्यामको ‘यह’ कहेगा और रामको ‘तू’ कहेगा अथवा श्यामको ‘तू’ और रामको ‘यह’ कहेगा तथा गोपालको ‘वह’ कहेगा । अगर गोपाल अपनेको ‘मैं’ कहे तो वह राम, श्याम और गोविन्द‒तीनोंको ‘वह’ कहेगा । इस प्रकार राम, श्याम, गोविन्द और गोपाल‒ये चारों ही एक-दूसरेकी
दृष्टिमें मैं, तू, यह और वह बन सकते हैं । इन चारोंमें ‘मैं’ सबसे कमजोर है । कारण कि एक व्यक्तिको हजारों-लाखों आदमी
तू, यह और वह कह सकते हैं, पर ‘मैं’ अकेला वही एक व्यक्ति कह सकता है !
मैं-मेरा ही माया है, जिसके त्यागपर सबने विशेष जोर दिया है[1] । परन्तु स्वरूप मायारहित है । स्वरूपमें ‘मैं’ और ‘मेरा’‒दोनों ही नहीं हैं । वह ‘मैं’ और ‘मेरा’‒दोनोंका प्रकाशक है, आश्रय है, आधार है, अधिष्ठान है । अतः स्वतःसिद्ध विवेकके
द्वारा मैं और मेराको छोड़कर उसके प्रकाशक आश्रय, आधार, अधिष्ठानमें स्थित होना (जो कि पहलेसे ही है) करणनिरपेक्ष
साधन है ।
जेहि बस कीन्हे जीव निकाया ॥
(मानस ३
। १५ । २)
२. मैं मेरे की
जेवरी, गल बँध्यो
संसार ।
दास कबीरा क्यों बँधे, जाके राम अधार ॥
गीतामें भी भगवान्ने तीनों योगोंमें
अहंता-ममताका त्याग बताया है; जैसे‒कर्मयोगमें ‘निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति’ (२ । ७१), ज्ञानयोगमें ‘अहङ्कारं......विमुच्य
निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते’ (१८ । ५३) और भक्तियोगमें ‘निर्ममो निरहङ्कार.....यो मद्भक्तः स मे प्रियः’ (१२ । १३-१४) । कर्मयोगमें निर्मम-निरहंकार होनेसे
परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती है, ज्ञानयोगमें निर्मम-निरहंकार होनेसे
ब्रह्ममें स्थिति हो जाती है और भक्तियोगमें निर्मम-निरहंकार होनेसे परमप्रेमकी प्राप्ति
हो जाती है ।
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