।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल षष्ठी, वि.सं.–२०७५, सोमवार
        करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



दोष तो करनेसे ही आता है । हम कुछ नहीं करेंगे तो दोष कैसे आयेगा ? क्योंकि कुछ न करनेसे प्रकृतिका सम्बन्ध नहीं रहता तथा स्वतःसिद्ध निर्दोष स्वरूपमें स्वतःस्थिति हो जाती है । इसलिये भलाई करनेकी अपेक्षा बुराई न करना श्रेष्ठ है ।

तन कर मन कर वचन कर, देत न काहू दुःख ।
तुलसी पातक झरत है,  देखत   उनका   मुख ॥

मूलमें हमें असत्‌का ही त्याग करना है, सत्‌को प्राप्त नहीं करना है; क्योंकि सत् स्वतःसिद्ध प्राप्त है । असत्‌का त्याग होनेपर सत् ही शेष रहता है, असत् शेष नहीं रहता । अतः हम असत्‌का त्याग करेंगे तो सत्कर्म, सच्चर्चा, सच्चिन्तन और सत्संग स्वतः होंगे, करने नहीं पड़ेंगे ।

सत्‌से अलग कोई हो ही नहीं सकता और असत्‌के साथ कोई रह ही नहीं सकता । परन्तु जब हम सत्‌को प्राप्त करनेका उद्योग करते हैं, तब असत् (इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि) का सहारा लेना ही पड़ता है । कारण कि असत्‌की सहायताके बिना उद्योग हो ही नहीं सकता । असत्‌का सहारा रहनेपर सीमित साधन होता है । जैसे हाथसे दीवारको नहीं पकड़ सकते, ऐसे ही सीमित साधनसे असीम तत्त्वको नहीं पकड़ सकते । असत्‌का त्याग (अस्वीकृति) करनेपर सत्‌की प्राप्ति स्वत हो जाती है; क्योंकि वह स्वतःप्राप्त है । त्याग उसीका होता है, जो सदासे ही त्यक्त है और प्राप्ति उसीकी होती है, जो सदासे ही प्राप्त है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६)साधकका काम केवल इतना है कि वह विवेकपूर्वक असत्‌का संग न करे, असत्‌को स्वीकार न करे ।

५. अहंता-ममताका निषेध

करणनिरपेक्ष साधनमें सत्-असत्‌के विवेककी मुख्यता होनेसे अहम्‌का नाश जल्दी और सुगमतासे हो जाता है; क्योंकि अहम् भी असत् (जड) ही है । गीताने पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम्‒इन आठोंको अपरा (जड) प्रकृति कहा है[1] । ऐसा कहनेका तात्पर्य यह है कि जैसे पृथ्वी जड और जाननेमें आनेवाली है, ऐसे ही अहम् भी जड और जाननेमें आनेवाला है ।



[1] भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
    अहङ्कार इतीयं मे   भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
                                                                    (गीता ७ । ४)

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम्‒इन आठोंमें जातीय एकता तो है, पर स्वरूपकी एकता नहीं है अर्थात् जाति एक होनेपर भी इनका स्वरूप अलग-अलग है [ एक अनेकमें अनुगत हो तो उसको जाति कहते हैं ] । परन्तु सत्तामें स्वरूपकी एकता है । अतः सत्ता तो एक है, पर करण एक नहीं है । सत्तामें भेद सम्भव नहीं है और करणोंमें एकता सम्भव नहीं है । कुछ दार्शनिक सत्तामें (जीव तथा ईश्वरका) भेद मानते हैं और कुछ नहीं मानते । जैसे, जबतक सायुज्य मुक्ति न हो, तबतक वैष्णव दार्शनिक सत्तामें भेद मानते हैं । दार्शनिकोंमें यह मतभेद भी तभीतक है, जबतक सूक्ष्म अहम् है । अहम् न रहनेसे सब दार्शनिक एक हो जाते हैं अर्थात् अहम्‌का नाश होनेपर दार्शनिक नहीं रहते, प्रत्युत दर्शन (तत्त्व) रहता है ।