।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल नवमी, वि.सं.–२०७५, गुरुवार
        करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



भगवान्‌ने ज्ञानेन्द्रियोंको भी कर्मेन्द्रियाँ ही माना है । इसलिये गीतामें ज्ञानेन्द्रियोंका वर्णन तो आया है, पर ‘ज्ञानेन्द्रिय’ शब्द कहीं नहीं आया है । देखना, सुनना, स्पर्श करना आदि ज्ञानेन्द्रियोंकी क्रियाओंको भी गीतामें कर्मेन्द्रियोंकी क्रियाओंके साथ ही सम्मिलित किया गया है[1] तीसरे अध्यायके छठे-सातवें श्लोकोंमें भी ज्ञानेन्द्रियोंको कर्मेन्द्रियोंके अन्तर्गत ही माना गया है; क्योंकि ज्ञानेन्द्रियोंके बिना मिथ्याचार भी सिद्ध नहीं होगा और कर्मयोगका अनुष्ठान भी नहीं होगा[2] । जहाँ कर्मोंके तीन (सात्त्विक, राजस, तामस) भेद बताये गये हैं, वहाँ भी ‘ज्ञानेन्द्रिय’ शब्द नहीं आया है (गीता १० । २३‒२५) । ज्ञानेन्द्रियोंके विषयोंके लिये भी ‘पञ्च चेन्द्रियगोचराः’ (गीता १३ । ५) पद दिया गया है ।

कर्म तीन प्रकारके होते हैं‒क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध । मनुष्य वर्तमानमें जो कर्म करता है, वे ‘क्रियमाण’ कर्म हैं । भूतकालमें (इस जन्ममें अथवा पहलेके अनेक मनुष्य-जन्मोंमें) किये हुए जो कर्म अन्तःकरणमें संगृहीत हैं, वे ‘संचित’ कर्म हैं । संचितमेंसे जो कर्म फल देनेके लिये उन्मुख हो गये हैं अर्थात् जन्म, आयु और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें परिणत होनेके लिये सामने आ गये हैं, वे ‘प्रारब्ध’ कर्म हैं ।



      [1] नैव किञ्चित्करोमीति   युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् ॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि           ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु   वर्तन्त   इति  धारयन् ॥
                                                (गीता ५ । ८-९)

‘तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी देखता, सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, त्याग करता, सोता, खास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता हुआ भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं‒ऐसा समझकर ‘मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ’ऐसा माने ।’

यहाँ देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना और खाना‒यें पाँच क्रियाएँ ज्ञानेन्द्रियोंकी हैं । चलना, ग्रहण करना, बोलना और मल-मूत्रका त्याग करना‒ये चार क्रियाएँ कर्मेन्द्रियोंकी हैं । सोना‒यह एक क्रिया अन्तःकरणकी है । श्वास लेना‒यह एक क्रिया प्राणकी है । आँखे खोलना तथा मूँदना‒ये दो क्रियाएँ उपप्राणकी हैं । तात्पर्य है कि स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरमें होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिमें ही होती हैं, स्वयंमें नहीं । अतः स्वयंका किसी भी क्रियासे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है ।

    [2] कर्मेन्द्रियाणि संयम्य  य आस्ते मनसा स्मरन् ।
         इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
         यस्त्विन्द्रियाणि मनसा     नियम्यारभतेऽर्जुन ।
         कर्मेन्द्रियैः    कर्मयोगमसक्तः   स  विशिष्यते ॥
                                                    (गीता ३ । ६-७)