क्रियमाण कर्म अनेक प्रकारके कहे गये
हैं । जैसे, व्याकरणकी दृष्टिसे कर्म चार प्रकारके
हैं‒उत्पाद्य, विकार्य, संस्कार्य (मलापकर्ष तथा गुणाधान) और आप्य [ कहीं-कहीं
निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य‒ये तीन प्रकार कहे
गये हैं ] । न्यायकी दृष्टिसे कर्म पाँच प्रकारके हैं‒उत्थेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन । धर्मकी दृष्टिसे भी
कर्म पाँच प्रकारके हैं‒नित्य, नैमित्तिक, काम्य, प्रायश्चित्त और आवश्यक कर्तव्य-कर्म । ये सभी प्रकारके कर्म प्रकृतिके सम्बन्धसे
होनेवाले हैं । प्रकृतिके सम्बन्धसे रहित स्वयं (स्वरूप) कभी किंचिन्मात्र भी किसी
कर्मका कर्ता नहीं है । भगवान्ने स्वरूपको कर्ता माननेवालेकी
निन्दा की है कि उसकी बुद्धि शुद्ध अर्थात् विवेकवती नहीं है, वह दुर्मति है[1] । परन्तु जो अहम्को अपना स्वरूप नहीं
मानता, ऐसा तत्त्वज्ञ महापुरुष स्वयंको कर्ता अनुभव नहीं करता‒‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत
तत्त्ववित्’ (गीता ५ । ८) । तात्पर्य है कि अहम्को अपना स्वरूप
माननेसे जो ‘अहङ्कारविमूढात्मा’ हो गया था, वही अपनेको अहम्से अलग अनुभव करनेपर ‘तत्त्ववित्’ हो जाता है ।
अहंकारसे मोहित होकर स्वयंने भूलसे
अपनेको कर्ता मान लिया तो वह कर्म तथा उनके फलोंसे बँध गया और चौरासी लाख योनियोंमें
चला गया । अब यदि वह अपनेको अहम्से अलग माने और अपनेको कर्ता न माने अर्थात् स्वयं
वास्तवमें जैसा है, वैसा ही अनुभव कर ले तो उसके तत्त्ववित्
(मुक्त) होनेमें आश्चर्य ही क्या है ? तात्पर्य है कि जो असत्य है, वह भी जब सत्य मान लेनेसे सत्य दीखने
लग गया तो फिर जो वास्तवमें सत्य है, उसको मान लेनेपर वह वैसा ही दीखने लग
जाय तो इसमें क्या आश्चर्य है ?
वास्तवमें स्वयं जिस समय
अपनेको कर्ता-भोक्ता मानता है, उस समय भी वह कर्ता-भोक्ता नहीं है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति
न लिप्यते’ (गीता १३ । ३१) । कारण कि अपना स्वरूप सत्तामात्र
है । सत्तामें अहम् नहीं है और अहम्की सत्ता नहीं है । अतः ‘मैं कर्ता हूँ’‒यह मान्यता कितनी ही दृढ़ हो, है तो भूल ही ! भूलको भूल मानते ही
भूल मिट जाती है‒यह नियम है । किसी गुफामें सैकड़ों वर्षोंसे अन्धकार हो तो प्रकाश करते
ही वह तत्काल मिट जाता है, उसके मिटनेमें अनेक वर्ष-महीने नहीं
लगते । इसलिये साधक दृढ़तासे यह मान ले कि ‘मैं कर्ता नहीं
हूँ’[2] । फिर यह मान्यता मान्यतारूपसे
नहीं रहेगी, प्रत्युत अनुभवमें परिणत
हो जायगी ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥
(गीता
१८ । १६)
[2] जड-चेतनकी ग्रन्थि होनेसे ‘मैं’ का प्रयोग जड (तादात्म्यरूप अहम्) के लिये भी होता है
और चेतन (स्वरूप) के लिये भी होता है । जैसे, ‘मैं कर्ता हूँ’‒इसमें जडकी तरफ दृष्टि है और ‘मैं कर्ता
नहीं हूँ’‒इसमें (जडका निषेध होनेसे) चेतनकी तरफ
दृष्टि है । जिसकी दृष्टि जडकी तरफ है अर्थात् जो अहम्को अपना स्वरूप मानता है, वह ‘अहङ्कारविमूढात्मा’ है और जिसकी दृष्टि चेतन (अहंरहित स्वरूप) की तरफ है, वह ‘तत्त्ववित्’ है ।
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