।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल एकादशी, वि.सं.–२०७५, शनिवार
पापांकुशा एकादशी-व्रत (सबका)
        करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



जब चेतनमें कर्तापन है ही नहीं तो फिर उसको सुख-दुःखके भोक्तापनमें हेतु क्यों कहा गया है‒‘पुरुषः सुखदुखानां भोकृत्वे हेतुरुच्यते ।’ (गीता १३ । २०) ? इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि अहम्‌के साथ तादात्म्य करनेसे ही चेतन सुख-दुःखका भोक्ता बनता है‒

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजागणान् ।
                                                 (गीता १३ । २१)

चेतनको भोक्तापनमें हेतु बतानेका कारण यह है कि सुखी-दुःखी चेतन ही हो सकता है, जड नहीं । इसमें भी एक मार्मिक बात है कि अहम्‌के साथ तादात्म्य होते हुए भी वास्तवमें चेतन सुख-दुःखका भोक्ता नहीं है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥’ (गीता १३ । ३१) । तात्पर्य है कि कर्ता-भोक्ता अहम् है, स्वयं (चेतन) नहीं ।

तादात्म्य क्या है ? एक चार कोनोंवाला लोहा हो और उसको अग्निसे तपा दिया जाय तो यह लोहे और अग्निका तादात्म्य है । तादात्म्य होनेसे लोहेमें जलानेकी ताकत न होनेपर भी वह जलानेवाला हो जाता है और अग्नि चार कोनोवाली न होनेपर भी चार कोनोवाली हो जाती है । ऐसे ही जड (अहम्) और चेतनका तादात्म्य होनेपर जडकी सत्ता न होनेपर भी सत्ता दीखने लग जाती है और कर्ता-भोक्ता न होनेपर भी चेतन कर्ता-भोक्ता बन जाता है ।

जैसे चुम्बककी तरफ लोहा ही खिंचता है, अग्नि नहीं खिंचती; परन्तु लोहेसे तादात्म्य होनेके कारण अग्नि भी चुम्बककी तरफ खिंचती हुई प्रतीत होती है । ऐसे ही भोगोंकी तरफ अहम् ही खिंचता है, चेतन नहीं खिंचता । अहम्‌के बिना केवल चेतनका भोगोंमें आकर्षण हो ही नहीं सकता । अहम्‌के साथ एक होनेसे ही स्वयं भोक्ता बनता है अर्थात् अपनेको सुखी-दुःखी मानता है । अतः वास्तवमें अहम् ही कर्ता-भोक्ता बनता है, चेतन नहीं ।


‘मैं हूँ’यह जड-चेतनका तादात्म्य है । इस ‘मैं हूँ’ में ही भोक्तापन रहता है । अगर ‘मैं’ न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । जैसे लोहे और अग्निमें तादात्म्य न रहनेसे लोहा पृथ्वीपर ही रह जाता है और अग्नि निराकार अग्नि-तत्त्वमें लीन हो जाती है, ऐसे ही अहम् तो प्रकृतिमें ही रह जाता है और ‘हूँ’ (‘है’ का स्वरूप होनेसे) ‘है’ में ही विलीन हो जाता है । ‘है’ में भोक्तापन नहीं है । तात्पर्य है कि भोगोंमें ‘हूँ’ खिंचता है, ‘है’ नहीं खिंचता । ‘हूँ’ ही कर्ता-भोक्ता बनता है, ‘है’ कर्ता-भोक्ता नहीं बनता । अतः ‘हूँ’ को न मानकर ‘है’ को ही माने अर्थात् अनुभव करे ।