जब चेतनमें कर्तापन है ही नहीं तो फिर
उसको सुख-दुःखके भोक्तापनमें हेतु क्यों कहा गया है‒‘पुरुषः
सुखदुखानां भोकृत्वे हेतुरुच्यते ।’ (गीता १३ । २०) ? इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि अहम्के साथ तादात्म्य करनेसे ही चेतन सुख-दुःखका
भोक्ता बनता है‒
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजागणान्
।
(गीता १३ । २१)
चेतनको भोक्तापनमें हेतु बतानेका कारण
यह है कि सुखी-दुःखी चेतन ही हो सकता है, जड नहीं । इसमें भी एक मार्मिक बात है कि अहम्के साथ तादात्म्य होते हुए भी वास्तवमें
चेतन सुख-दुःखका भोक्ता नहीं है‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति
न लिप्यते ॥’
(गीता १३ । ३१) । तात्पर्य है कि कर्ता-भोक्ता अहम् है, स्वयं (चेतन) नहीं ।
तादात्म्य क्या है ? एक चार कोनोंवाला लोहा हो और उसको अग्निसे तपा दिया जाय
तो यह लोहे और अग्निका तादात्म्य है । तादात्म्य होनेसे लोहेमें जलानेकी ताकत न होनेपर
भी वह जलानेवाला हो जाता है और अग्नि चार
कोनोवाली न होनेपर भी चार कोनोवाली हो जाती है । ऐसे ही जड
(अहम्) और चेतनका तादात्म्य होनेपर जडकी सत्ता न होनेपर भी सत्ता दीखने लग जाती है
और कर्ता-भोक्ता न होनेपर भी चेतन कर्ता-भोक्ता बन जाता है ।
जैसे चुम्बककी तरफ लोहा ही खिंचता है, अग्नि नहीं खिंचती; परन्तु लोहेसे तादात्म्य होनेके कारण अग्नि भी चुम्बककी तरफ खिंचती हुई प्रतीत
होती है । ऐसे ही भोगोंकी तरफ अहम् ही खिंचता है, चेतन नहीं खिंचता । अहम्के बिना केवल चेतनका भोगोंमें आकर्षण हो ही नहीं सकता
। अहम्के साथ एक होनेसे ही स्वयं भोक्ता बनता है अर्थात् अपनेको सुखी-दुःखी मानता
है । अतः वास्तवमें अहम् ही कर्ता-भोक्ता बनता है, चेतन नहीं ।
‘मैं हूँ’‒यह जड-चेतनका तादात्म्य है । इस ‘मैं हूँ’ में ही भोक्तापन रहता है । अगर ‘मैं’ न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा । जैसे लोहे और अग्निमें तादात्म्य
न रहनेसे लोहा पृथ्वीपर ही रह जाता है और अग्नि निराकार अग्नि-तत्त्वमें लीन हो जाती
है, ऐसे ही अहम् तो प्रकृतिमें ही रह जाता है और ‘हूँ’ (‘है’ का स्वरूप होनेसे) ‘है’ में ही विलीन हो जाता है । ‘है’ में भोक्तापन नहीं है । तात्पर्य है कि भोगोंमें ‘हूँ’ खिंचता है, ‘है’ नहीं खिंचता । ‘हूँ’ ही कर्ता-भोक्ता बनता है, ‘है’ कर्ता-भोक्ता नहीं बनता । अतः ‘हूँ’ को न मानकर ‘है’ को ही माने अर्थात् अनुभव करे ।
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