सुख-दुःखके आने-जानेका और स्वयंके रहनेका
अनुभव सबको है । पापी-से-पापी मनुष्यको भी इसका अनुभव है । ऐसा अनुभव होनेपर भी मनुष्य
आगन्तुक सुख-दुःखके साथ मिलकर सुखी-दुःखी हो जाता है । इसका कारण यह है कि ‘मैं अलग हूँ और सुख-दुःख अलग हैं’‒इस विवेकका वह आदर नहीं करता, इसको महत्त्व नहीं देता, इसपर कायम नहीं रहता । वास्तवमें स्वयं सुखी-दुःखी नहीं होता, प्रत्युत अहम्के साथ मिलकर अपनेको सुखी-दुःखी मान लेता
है । तात्पर्य है कि सुख-दुःख केवल मान्यतापर टिके हुए हैं
।
सुख-दुःखका आना, रहना और जाना‒ये तीन अवस्थाएँ सबके अनुभवमें आती हैं ।
वास्तवमें ये तीन न होकर एक ही हैं । कारण कि सुख-दुःखके आते ही उसी क्षण उनका जाना
शुरू हो जाता है । उनका रहना सिद्ध होता ही नहीं । तात्पर्य है कि सुख-दुःख तो निरन्तर
बह रहे हैं, अभावमें जा रहे हैं, पर अज्ञानके कारण हमने ही उनको पकड़ा है अर्थात् उनको आते
हुए और रहते हुए माना है । वास्तवमें ‘वे बह रहे हैं’‒ऐसा कहना भी सुख-दुःखकी सत्ताको
लेकर है । अगर उनको सत्ता न दें तो वे हैं ही नहीं ! जब हैं ही नहीं तो फिर बहें क्या
?
७. स्वतःप्राप्त और सहज निवृत्ति
स्वतःप्राप्त कभी अप्राप्त नहीं होता
और सहज निवृत्तिका कभी नाश नहीं होता । स्वतःप्राप्त तत्त्व है और सहज निवृत्ति प्रकृति
है । सहज निवृत्तिके दो भेद हैं‒प्रवृत्ति और निवृत्ति । प्रवृत्तिमें भी सहज निवृत्ति
है और निवृत्तिमें भी सहज निवृत्ति है । परन्तु स्थूल दृष्टिसे देखा जाय तो सहज निवृत्तिका
भान प्रवृत्तिके समय नहीं होता, प्रत्युत प्रवृत्तिके आदि और अन्तमें
होता है । तात्पर्य है कि प्रकृति निरन्तर क्रियाशील होनेसे कभी अक्रिय नहीं रहती ।
अतः प्रकृतिकी क्रियाशीलता ही स्थूल दृष्टिसे सर्ग और प्रलय, महासर्ग और महाप्रलय‒इन दो अवस्थाओंके रूपमें प्रतीत होती
है[1] । परन्तु स्वतःप्राप्त तत्त्वमें क्रिया नहीं है; अतः उसमें क्रियाकी सहज निवृत्ति है ।
[1] सर्गके आरम्भसे सर्गके मध्यतक प्रकृति
सर्गकी ओर चलती है और सर्गके मध्यसे प्रकृति प्रलयकी ओर चलती है । ऐसे ही प्रलयके आरम्भसे
प्रलयके मध्यतक प्रकृति प्रलयकी ओर चलती है और प्रलयके मध्यसे प्रकृति सर्गकी ओर चलती
है । जैसे, सूर्योदय होनेपर प्रकाश मध्याह्नतक
बढ़ता जाता है और मध्याह्नसे सूर्यास्ततक प्रकाश घटता जाता है । सूर्यास्त होनेपर अन्धकार
मध्यरात्रितक बढ़ता जाता है और मध्यरात्रिसे सूर्योदयतक अन्धकार घटता जाता है । तात्पर्य
है कि जैसे प्रकाश और अन्धकारकी क्रिया निरन्तर होती रहती है, ऐसे ही प्रकृतिमें सर्ग और प्रलय, महासर्ग और महाप्रलयकी क्रिया भी निरन्तर होती रहती है, कभी मिटती नहीं ।
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