जिसमें क्रिया नहीं है, वह नित्यप्राप्त है और जिसमें क्रिया
है वह कभी किसीको प्राप्त हुआ नहीं, प्राप्त है नहीं, प्राप्त होगा नहीं तथा प्राप्त हो सकता
नहीं । तात्पर्य
है कि क्रियाशील प्रकृतिकी प्रतीति तो होती है, पर प्राप्ति नहीं होती । सहज निवृत्तिकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? अविवेकके कारण
स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई आदिकी प्राप्ति दीखती तो है, पर वास्तवमें इनकी अप्राप्ति ही है । कारण कि ये पहले
भी अप्राप्त थे, पीछे भी अप्राप्त हो जायेंगे तथा वर्तमानमें
भी ये हमारेसे निरन्तर वियुक्त हो रहे हैं । अतः इनकी निरन्तर निवृत्ति (सम्बन्ध-विच्छेद)
है, प्राप्ति नहीं है ।
तत्त्वकी प्राप्ति भी स्वतःसिद्ध है
और प्रकृतिकी निवृत्ति भी स्वतःसिद्ध है । तत्त्वकी प्राप्तिका नाम भी ‘योग’ है‒‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) और प्रकृतिकी निवृत्तिका नाम भी ‘योग’ है‒‘दुःखसयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ (गीता ६ । २३) ।
‒इस प्रकार विवेकको प्रधानता देकर, अपनी विवेकशक्तिका उपयोग करके सहज निवृत्तिकी
निवृत्ति और स्वतःप्राप्तकी प्राप्ति स्वीकार करना करणनिरपेक्ष साधन है ।
८. संसारका अभाव और परमात्मतत्त्वका
भाव
देखने, सुनने तथा चिन्तन करनेमें जितना भी संसार आ रहा है इसका
पहले भी अभाव था, पीछे भी अभाव हो जायगा तथा वर्तमानमें
भी यह निरन्तर अभावमें जा रहा है‒
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं ।
मोह मूल परमारथु
नाहीं ॥
(मानस २ ।
९२ । ४)
इसका इतनी तेजीसे परिवर्तन
हो रहा है कि इसको दो बार नहीं देख सकते अर्थात् एक बार देखनेमें यह जैसा था, दूसरी बार देखनेमें यह वैसा नहीं रहता
। इसमें केवल परिवर्तन-हीं-परिवर्तन है । परिवर्तनके पुंजका नाम ही संसार है ।
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