Oct
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हम मानी हुई एकदेशीय सत्ता ‘मैं हूँ’ को तो दृढ़तासे अनुभव करते हैं, पर तत्त्वकी अनन्त सत्ताको मानते हैं[1] इस विपरीतताका कारण अहंकार ही है । अहंकारको मिटानेके
लिये एकदेशीय सत्ताको अनन्त सत्तामें मिला दें अर्थात् समर्पित कर दें, जो कि वास्तवमें है । ऐसा करनेसे मानी हुई एकदेशीय सत्ता
नहीं रहेगी, प्रत्युत देश-कालादि भावोंसे अतीत अनन्त
सत्ता रह जायगी । तात्पर्य है कि अनन्त सत्ताकी मान्यता मान्यतारूपसे
नहीं रहेगी,
प्रत्युत पहले जितनी दृढ़तासे
एकदेशीय सत्ताका भान होता था, उससे भी अधिक दृढ़तासे अनन्त सत्ताका अनुभव स्वतः होने लगेगा
।
एक मार्मिक बात है कि अनन्त सत्ताको
एकदेशीय सत्तामें मिलानेकी अपेक्षा एकदेशीय सत्ताको अनन्त सत्तामें मिलाना श्रेष्ठ
है । कारण कि एकदेशीय सत्तामें अनादिकालसे माने हुए अहंकारके संस्कार रहते हैं; अतः जब उसमें अनन्त सत्ताकी स्थापना करेंगे, तब वह अहंकार जल्दी नष्ट नहीं होगा । परन्तु एकदेशीय सत्ताको अनन्त सत्तामें मिलानेसे अहंकार सर्वथा नहीं रहेगा
। कारण कि अनन्त सत्ता मानी हुई नहीं है, प्रत्युत वास्तविक है ।
वास्तवमें जीव और ब्रह्मकी एकता करना
ही भूल है । जीव और ब्रह्मकी एकता आजतक न कभी हुई है, न होगी
और न हो ही सकती है । कारण कि जीवमें ब्रह्मभाव नहीं है और ब्रह्ममें जीवभाव नहीं है
। अतः जीव और ब्रह्मकी एकता न करके जीवभाव अर्थात् अहम् (मैं-पन) को मिटाना है । अहम्के
मिटते ही केवल ब्रह्म रह जाता है । इसीको गीताने ‘वासुदेवः
सर्वम्’ (७ । १९) कहा है । इसीलिये यह कहा गया है कि
जीवको ब्रह्मकी प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत जीवभाव मिटनेपर ब्रह्मको ही ब्रह्मकी प्राप्ति होती है‒
ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति
(बृहदारण्यक॰ ४ । ४ । ६)
ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति
(मुण्डक॰ ३ । २ । ९)
ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः
(गीता ५ । २०)
भगवान्ने अहम् मिटनेके बाद ही ब्राह्मी
स्थिति होनेकी बात कही है‒
निर्ममो निरहंकारः
स शान्तिमधिगच्छति
॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य
विमुह्यति ।
(गीता २ । ७१-७२)
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होनेपर फिर
कभी अहम्से मोहित (अहंकारविमूढात्मा) होनेकी सम्भावना नहीं रहती ।
[1] वास्तवमें ‘मैं हूँ’‒यह एकदेशीय सत्ता हमारी झूठी मान्यता है, अनुभव नहीं‒‘अहङ्कारविमूढात्मा
कर्ताहमिति मन्यते’
(गीता ३ । २७) । इस झूठी मान्यताके कारण ही अनन्त सत्ताका (जो कि पहलेसे ही ज्यों-की-त्यों विद्यमान
है) अनुभव नहीं होता अर्थात् उसकी तरफ हमारी दृष्टि नहीं जाती । इसलिये ‘मैं हूँ’ इस झूठी मान्यताको मान्यताके द्वारा ही मिटानेकी बात गीतामें
आयी है‒‘नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (५ । ८) ।
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