Oct
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जिस सत्ताके अन्तर्गत अनेक ब्रह्माण्ड
हैं, उस अनन्त सत्तामें और एकदेशीय सत्तामें वस्तुतः कोई भेद
नहीं है । भगवान् कहते हैं‒
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु
भारत ।
(गीता १३ । २)
‘हे भारत ! तू सम्पूर्ण
क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ मेरेको ही समझ ।’ तात्पर्य है कि वास्तविक सत्ता दो नहीं है, प्रत्युत एक ही है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ । अपरा प्रकृतिके जिस अंशमें सम्पूर्ण क्रियाएँ हो रही
हैं, उस अंश अर्थात् ‘अहम्’ के साथ सम्बन्ध मान लेनेसे सत्तामें भेद दीखने लग जाता
है । जिसने अहम्के साथ सम्बन्ध माना है, वह एकदेशीय सत्ता हो जाती है । इस एकदेशीय
सत्ताको ही जीव, ईश्वरका अंश, परा प्रकृति, क्षेत्रज्ञ आदि नामोंसे कहते हैं ।
इस एकदेशीय सत्ताको ही ‘मैं हूँ’‒इस रूपसे जाना जाता है । यह एकदेशीय सत्ता जिस अनन्त सत्ताका
अंश है, उस अनन्त सत्ताको ब्रह्म, परमात्मा, भगवान् आदि नामोंसे कहते हैं । उस अनन्त
सत्ताको भी ‘है’-रूपसे जाना जाता है । इस प्रकार अहम्के
कारण एक ही सत्ताके दो भेद हो जाते हैं‒एकदेशीय सत्ता (जीव) और अनन्त सत्ता (ब्रह्म)
।
‘मैं हूँ’‒यह जड-चेतनकी ग्रन्थि है । इसमें ‘मैं’ जड (प्रकृति) का अंश है और ‘हूँ’ चेतन (परमात्मा) का अंश है । ‘मैं’-पनकी प्रकृतिके साथ एकता है और ‘हूँ’ की परमात्मा (‘है’) के साथ एकता है । ‘मैं’-पनके कारण ही ‘है’ ‘हूँ’-रूपसे दीखता है । अगर ‘मैं-पन’ न रहे तो ‘हूँ’ ‘है’ में समा जायगा । सभी ‘हूँ’ ‘है’ में समा जाते हैं, पर ‘है’ ‘हूँ’ में नहीं समा सकता । वास्तवमें ‘हूँ’ ‘है’ में समाया हुआ ही है ! उस ‘है’ में ‘मैं’-पन नहीं है । तात्पर्य है कि ‘मैं’-पन (अहम्) से ही सत्तामें ‘हूँ’ और ‘है’ का भेद होता है । इसलिये सत्ताभेदको मिटानेके लिये ‘मैं’-पनका नाश करना आवश्यक है । यह ‘मैं’-पन भूलसे माना हुआ है ।
यह भूल अपनेमें अर्थात् व्यक्तित्वमें है, सत्ता (तत्त्व) में नहीं । इस एक भूलमें
ही अनेक भूलें हैं ! इस भूलको मिटानेके लिये ‘हूँ’ को ‘है’ में मिलाना बहुत आवश्यक है । ‘हूँ’ को ‘है’ में मिलानेसे ‘मैं’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ (तत्त्व) रह जायगा ।
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