Oct
27
।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७५, शनिवार
  करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य


९. एकदेशीय सत्ता और अनन्त सत्ता

साधककी समस्या यह है कि जिसकी सत्ता नहीं है, जो एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, उस संसारका (भोगोंका) तो आकर्षण होता है, पर जिसकी सत्ता है, जो नित्य-निरन्तर विद्यमान है, उस तत्त्वका आकर्षण नहीं होता ! जो ‘नहीं’ है, उसका असर पड़ता है और जो है’, उसका असर नहीं पड़ता ! अब इसपर विचार किया जाता है । वास्तवमें  ‘नहींको हैमाननेसे ही भोग होता है । संसारको स्थायी माने बिना उसका भोग हो ही नहीं सकता । संसारकी स्थिति वास्तवमें है ही नहीं । उसका प्रतिक्षण ही नाश हो रहा है । नाशके इस क्रम (प्रवाह) को ही स्थिति कह देते हैं । परन्तु भोग भोगते समय इस बातका ज्ञान नहीं रहता । सुखभोगकी इच्छा इस ज्ञानको तिरस्कृत (रद्‌दी) कर देती है अर्थात् सुखभोगकी इच्छा भोगोंको सत्ता दे देती है । अतः भोगोंकी सत्ता नहीं है, नहीं है, नहीं है‒ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय तो सुखभोगकी इच्छा मिट जायगी अथवा एक परमात्मतत्त्वकी ही सत्ता है, है, है‒ऐसा दृढ़ निश्रय हो जाय तो सुखभोगकी इच्छा मिट जायगी ।

नहींनिरन्तर ‘नहीं’ में जा रहा है और हैनिरन्तर हैमें रह रहा है । नित्यनिवृत्तकी निरन्तर निवृत्ति हो रही है और नित्यप्राप्तकी निरन्तर प्राप्ति हो रही है । इस वास्तविकताका अनुभव करनेके लिये अहंकार (एकदेशीयपना) को मिटाना बहुत आवश्यक है ।

अपनेमें ‘मैं हूँ’ इस प्रकार जो एकदेशीयपना (अहम्) दीखता है, उसीसे परिच्छिन्नता, विषमता, व्यक्तित्व, अभाव, जडता, अशान्ति, कर्तृत्व, भोगेच्छा आदि विकार पैदा होते हैं । यह एकदेशीयपना ही तत्त्वसे भेद, दूरी तथा विमुखता पैदा करता है । जबतक अपनेमें एकदेशीयपना रहता है, तभीतक भोगोंमें आकर्षण रहता है । इस एकदेशीयपने (मैंपन) को मिटानेका उपाय है‒अपनेमें परमात्मतत्त्वकी सत्ता (है’) को स्वीकार करना ।

अपनेमें अपने सिवाय परमात्मतत्त्वकी सत्ता माननेसे क्या द्वैत नहीं आ जायगा ? द्वैत नहीं आयेगा, प्रत्युत द्वैतभावका नाश हो जायगा । कारण कि अपनेमें जो एकदेशीय सत्ता दीखती है, उसमें परमात्मतत्त्वकी अनन्त सत्ताको स्वीकार करनेसे वह एकदेशीय सत्ता मिट जायगी । एकदेशीय सत्ता मिटते ही द्वैतभाव, परिच्छिन्नता, विषमता, व्यक्तित्व आदि विकारोंका नाश हो जायगा । ये सब विकार एकदेशीय सत्तामें ही दीखते हैं ।