Oct
26
बादल आकाशको आच्छादित करते हैं पर ‘है’ को आच्छादित नहीं करते । शब्द आकाशका, स्पर्श वायुका, रूप अग्निका, रस जलका और गन्ध पृथ्वीका गुण है, पर ‘है’ में ये गुण नहीं हैं । स्थिर या चंचल मन होता है, ‘है’ नहीं होता । संकल्प-विकल्प मनमें होते हैं, ‘है’ में नहीं होते । कभी ठीक समझना, कभी कम समझना और कभी बिलकुल न समझना बुद्धिमें है, ‘है’ में नहीं है । सम्पूर्ण क्रियाएँ अहम् (धातुरूप समष्टि
अहंकार) में होती हैं, ‘है’ में कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया
नहीं होती । इसी अहम्के साथ सम्बन्ध जोड़कर जीव मान लेता है कि ‘मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ, मैं मूर्ख हूँ, मैं विद्वान् हूँ, मैं ऊँचा हूँ, मैं नीचा हूँ’ आदि । परन्तु ‘है’ कभी सुखी-दुःखी, कर्ता-भोक्ता, मूर्ख-विद्वान्, ऊँचा-नीचा आदि नहीं होता ।
हम कहते हैं कि ‘संसार है’ तो परिवर्तन संसारमें होता है, ‘है’ में नहीं होता । जैसे, ‘काठ है’ तो विकृति काठमें आती है, ‘है’ में नहीं आती । काठ जलता है, ‘है’ नहीं जलता । काठ जलकर कोयला हो गया तो जो पहले ‘काठ है’, वही अब ‘कोयला है’, तो ‘है’ में क्या फर्क पड़ा ? ऐसे ही काठ कटता है, ‘है’ नहीं कटता । पानीमें काठ बहता है, ‘है’ नहीं बहता । काठ कभी गीला होता है, कभी सूखा होता है, पर ‘है’ कभी गीला या सूखा नहीं होता । काठ कभी एकरूप रहता ही नहीं
और ‘है’ कभी अनेकरूप होता ही नहीं ।
जो बदले, वह संसार है और जो कभी न बदले, वह ‘है’ अर्थात् परमात्मतत्त्व है । संसारकी सत्ता तो उत्पन्न होनेके बाद
है, पर ‘है’ की सत्ता उत्पन्न होनेके बाद नहीं है, प्रत्युत पहलेसे ही स्वतःसिद्ध है‒‘नायं भूत्वा भविता
वा न भूयः’
(गीता २ । २०) । अतः संसारकी सत्ता अवास्तविक (मानी हुई) तथा एकदेशीय है और ‘है’ की सत्ता वास्तविक और अनन्त है ।
संसारको ‘है’ की आवश्यकता है, पर ‘है’ को संसारकी आवश्यकता नहीं है । कारण कि संसारकी सत्ता ‘है’ के अधीन है, पर ‘है’ की सत्ता संसारके अधीन नहीं है । जैसे प्रकाशमें सब वस्तुएँ दीखती हैं तो सबसे
पहले प्रकाश दीखता है, वस्तुएँ पीछे दीखती हैं, ऐसे ही सबसे पहले ‘है’ दीखता है, संसार पीछे दीखता है । परन्तु भोग तथा संग्रहमें आसक्त मनुष्य केवल संसारको ही
देखते हैं‒‘कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः’ (गीता १६ । ११) और तत्त्वज्ञ महापुरुष संसारको न देखकर
केवल ‘है’ को ही देखते हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) ।
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