Oct
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गीतामें आया है‒
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते
।
(८ । १९)
‘वही यह प्राणिसमुदाय
उत्पन्न हो-होकर लीन होता है ।’
‒जो उत्पन्न हो-होकर लीन होता है, वह बदलनेवाला नाशवान्
संसार है और जो वही रहता है, वह न बदलनेवाली अखण्ड सत्ता है । संसारमें
केवल परिवर्तन है और सत्तामें केवल अपरिवर्तन है । बदलनेवालेका नाम ही संसार है और
न बदलनेवालेका नाम ही परमात्मतत्त्व है । परमात्मतत्त्वकी सत्तासे ही यह संसार सत्तावाली
(‘है’-रूपसे) दीख रहा है‒
जासु सत्यता तें जड़ माया
।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
(मानस १ । ११७
। ८)
जैसे, हम कहते हैं कि ‘यह मनुष्य है, यह पशु है, यह वृक्ष है, यह मकान है’ आदि तो इसमें ‘मनुष्य, पशु, वृक्ष, मकान’ आदि तो पहले भी नहीं थे, पीछे भी नहीं रहेंगे तथा वर्तमानमें भी प्रतिक्षण अभावमें
जा रहे हैं; परन्तु ‘है’ रूपसे जो सत्ता है, वह सदा ज्यों-की-त्यों है । तात्पर्य है कि ‘मनुष्य, पशु, वृक्ष, मकान’ आदि तो संसार है और ‘है’ परमात्मतत्त्व है । संसारकी तो सत्ता नहीं है और परमात्मतत्त्वका अभाव नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः (गीता २ । १६) ।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आकाश, मन, बुद्धि तथा अहम्‒ये आठों अपरा प्रकृति हैं (गीता ७ । ४)
। इन आठोंमें क्रिया, परिवर्तन अथवा विकृति होती है, पर ये जिसकी सत्तासे सत्तावान् प्रतीत होते हैं, उस ‘है’ में कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया, परिवर्तन अथवा विकृति नहीं होती । वह नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है । जैसे, हम कहते हैं कि ‘पृथ्वी है’ तो इसमें दो शब्द हैं‒‘पृथ्वी’ और ‘है’ । जब भूकम्प आता है, तब वह पृथ्वीमें आता है, ‘है’ में नहीं आता । पेड़-पौधे पृथ्वीपर उगते हैं, ‘है’ पर नहीं उगते । जल कभी बर्फ बनकर जम
जाता है, कभी भाप बनकर उड़ जाता है, पर ‘है’ न जमता है, न उड़ता है । जल ठण्डा या गर्म होता
है, ‘है’ ठण्डा या गर्म नहीं होता । अग्नि कभी जलती है, कभी शान्त होती है, पर ‘है’ न जलता है, न शान्त होता है । वायु कभी स्थिर रहती है, कभी बहती है, पर ‘है’ न स्थिर रहता है, न बहता है ।
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