प्रश्न‒कर्मका उपयोग कहाँ है ?
उत्तर‒कर्मका उपयोग संसारसे ऊँचा उठनेके लिये
है । संसारसे ऊँचा उठनेका तात्पर्य है‒क्रियाकी आसक्ति (करनेका वेग) और पदार्थकी आसक्ति
(राग) का मिट जाना । अगर मनुष्य अपने विवेकके द्वारा इन दोनोंको न मिटा सके तो कर्मयोगसे
इनको मिटाये । कर्मयोगसे अर्थात् निष्कामभावसे दूसरोंके हितके लिये कर्तव्य-कर्म करनेसे
कर्मोंके वेगकी तथा वर्तमान रागकी निवृत्ति हो जाती है और फलेच्छाका त्याग करनेसे नया
राग पैदा नहीं होता । कर्मोंका वेग तथा रागकी निवृत्ति होनेसे मनुष्य योगारूढ़ हो जाता
है‒
आरुरुक्षोर्मुनेर्योग कर्म
कारणमुच्यते
।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते
॥
(गीता ६ । ३-४)
‘जो योगमें आरूढ़ होना
चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म
करना कारण है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमे कारण है ।’ (तात्पर्य है कि परमात्मप्राप्तिमें
कर्म कारण नहीं है, प्रत्युत कर्मोंके सम्बन्ध-विच्छेदसे
होनेवाली शान्ति कारण है ।)
‘जिस समय न इन्द्रियोंके
भोगोंमें तथा न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पोंका त्यागी
मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है ।’
तात्पर्य है कि कर्मोंका उपयोग वहींतक
है, जहाँतक प्रकृतिका राज्य है । प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें
कर्मोंका सर्वथा अभाव हो जाता है; क्योंकि क्रिया और पदार्थ सब प्रकृतिजन्य
हैं ।
प्रश्न‒कर्मयोग करणसापेक्ष है या करणनिरपेक्ष ?
उत्तर‒कर्मयोग करणनिरपेक्ष अर्थात् विवेकप्रधान
साधन है । अगर विवेककी प्रधानता न हो तो ‘कर्म’ होगा, ‘कर्मयोग’ होगा ही नहीं । ‘कर्म’ करणसापेक्ष है, पर ‘योग’ करणनिरपेक्ष है । तात्पर्य है कि योग
(समता) की प्राप्ति क्रियासे नहीं होती, प्रत्युत विवेकसे होती है । अतः कर्मयोग कर्म नहीं है ।
योगकी अपेक्षा कर्म दूरसे ही निकृष्ट
है‒‘दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।’ (गीता २ । ४९) । जैसे पर्वतसे अणु बहुत दूर है अर्थात्
अणुको पर्वतके पास रखकर दोनोंकी तुलना नहीं की जा सकती, ऐसे ही योगसे कर्म बहुत दूर है अर्थात् योग और कर्मकी
तुलना नहीं की जा सकती । योगके बिना कर्म निरर्थक है[1] ।
[1] योगके बिना ‘कर्म’ और ‘ज्ञान’ दोनों निरर्थक हैं, पर ‘भक्ति’ निरर्थक नहीं है । कारण कि भक्तिमें भगवान्के साथ सम्बन्ध
रहता है; अतः भगवान् स्वयं भक्तको योग प्रदान करते हैं‒‘ददामि बुद्धियोगं तम्’ (गीता १० । १०) ।
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