कर्मयोगमें ‘कर्म हमारे लिये है ही
नहीं’‒यह विवेक मुख्य रहता है । अपने लिये किया गया प्रत्येक
कर्म, यहाँतक कि समाधि भी बन्धनकारक है । कारण कि जबतक प्रकृतिके
साथ सम्बन्ध है, तबतक करना और न करना‒दोनों ही कर्म
हैं अर्थात् चलने, बोलने, देखने आदिकी तरह बैठना, मौन होना, सोना, समाधि लगाना आदि भी कर्म ही है । कर्मका सम्बन्ध संसारके साथ है, स्वरूपके साथ नहीं । स्थूलशरीरकी स्थूल संसारके साथ एकता
है, सूक्ष्मशरीरकी सूक्ष्म संसारके साथ एकता है तथा कारणशरीरकी
कारण संसारके साथ एकता है । अतः स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रियाएँ, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और ध्यान तथा कारणशरीरसे
होनेवाली समाधि संसारके लिये ही है, अपने लिये (व्यक्तिगत) नहीं । सत्स्वरूपमें कभी किंचिन्मात्र
भी कोई कमी नहीं आती; अतः उसके लिये किसी क्रियाकी आवश्यकता सम्भव ही नहीं है । स्वरूपपर कुछ करनेका दायित्व भी नहीं
है अर्थात् उसको अपने लिये कुछ करना ही नहीं है । कुछ करनेका दायित्व उसीपर होता है, जो कर सकता हो । करणोंके बिना कोई कर्म किया ही नहीं जा
सकता । करण प्रकृतिमें हैं तथा प्रकृतिके ही कार्य हैं । स्वरूपमें कोई भी करण नहीं
है; क्योंकि वह प्रकृति तथा उसके कार्यसे सर्वथा अतीत तत्त्व
है । अतः स्वरूपके लिये कुछ करना बनता ही नहीं । इसलिये कर्मयोगी
निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है, जिससे वह प्रकृतिके सम्बन्ध (कर्म-बन्धन)
से छूट जाता है‒
यज्ञायाचरत कर्म समग्रं प्रविलीयते
।
(गीता ४ । २३)
प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उसका
‘करना’ तथा ‘न करना’‒दोनोंसे ही कोई सम्बन्ध नहीं रहता‒
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन
।
(गीता ३ । १८)
३. मान्यताके परिवर्तनसे
मुक्ति
गीतामें आया है‒
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुचते
।
(२ । २४-२५)
‘यह आत्मा नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है । यह
प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय नहीं है और इसमें कोई विकार नहीं है
।’
‒ऐसे स्वभाववाले स्वयं (आत्मा) ने नित्य-निरन्तर बदलनेवाले
नाशवान्के साथ केवल मान्यता-मात्रसे संग कर लिया तो वह चौरासी लाख योनियोंमें चला
गया‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥’ (गीता १३ । २१) ।
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