।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७५, सोमवार
पितृविसर्जन, अमावस्याश्राद्ध
     करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



कर्मयोगमें ‘कर्म हमारे लिये है ही नहीं’यह विवेक मुख्य रहता है । अपने लिये किया गया प्रत्येक कर्म, यहाँतक कि समाधि भी बन्धनकारक है । कारण कि जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है, तबतक करना और न करना‒दोनों ही कर्म हैं अर्थात् चलने, बोलने, देखने आदिकी तरह बैठना, मौन होना, सोना, समाधि लगाना आदि भी कर्म ही है । कर्मका सम्बन्ध संसारके साथ है, स्वरूपके साथ नहीं । स्थूलशरीरकी स्थूल संसारके साथ एकता है, सूक्ष्मशरीरकी सूक्ष्म संसारके साथ एकता है तथा कारणशरीरकी कारण संसारके साथ एकता है । अतः स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रियाएँ, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और ध्यान तथा कारणशरीरसे होनेवाली समाधि संसारके लिये ही है, अपने लिये (व्यक्तिगत) नहीं । सत्स्वरूपमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई कमी नहीं आती; अतः उसके लिये किसी क्रियाकी आवश्यकता सम्भव ही नहीं है । स्वरूपपर कुछ करनेका दायित्व भी नहीं है अर्थात् उसको अपने लिये कुछ करना ही नहीं है । कुछ करनेका दायित्व उसीपर होता है, जो कर सकता हो । करणोंके बिना कोई कर्म किया ही नहीं जा सकता । करण प्रकृतिमें हैं तथा प्रकृतिके ही कार्य हैं । स्वरूपमें कोई भी करण नहीं है; क्योंकि वह प्रकृति तथा उसके कार्यसे सर्वथा अतीत तत्त्व है । अतः स्वरूपके लिये कुछ करना बनता ही नहीं । इसलिये कर्मयोगी निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है, जिससे वह प्रकृतिके सम्बन्ध (कर्म-बन्धन) से छूट जाता है‒

यज्ञायाचरत कर्म समग्रं प्रविलीयते ।
                                     (गीता ४ । २३)

प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उसका ‘करना’ तथा ‘न करना’दोनोंसे ही कोई सम्बन्ध नहीं रहता‒

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
                                         (गीता ३ । १८)

३. मान्यताके परिवर्तनसे मुक्ति

गीतामें आया है‒

नित्यः सर्वगतः  स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुचते ।
                                                   (२ । २४-२५)

 ‘यह आत्मा नित्य रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है । यह प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय नहीं है और इसमें कोई विकार नहीं है ।’

ऐसे स्वभाववाले स्वयं (आत्मा) ने नित्य-निरन्तर बदलनेवाले नाशवान्‌के साथ केवल मान्यता-मात्रसे संग कर लिया तो वह चौरासी लाख योनियोंमें चला गया‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥’ (गीता १३ । २१) ।