।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन अमावस्या, वि.सं.–२०७५, मंगलवार
भौमवती अमावस्या, मातामहश्राद्ध
     करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



केवल परिवर्तनशीलके साथ सम्बन्ध माननेसे कितना अनर्थ हो गया कि वह अनन्त जन्मोंसे मुफ्तमें ही दुःख पा रहा है ! यह कितने आश्रर्यकी बात है ! अब यदि वह इस असत्य मान्यताको छोड़ दे और सत्य तत्त्वको स्वीकार कर ले तो इसमें परिश्रम क्या है ? इसमें करण, क्रिया और कर्ताका क्या काम है ? इसमें परिश्रमकी गन्ध भी नहीं है । इसमें कुछ करना सम्भव ही नहीं है । इसके लिये कुछ करना मानो इस तत्त्वसे विमुख होना है !

जो किसी भी देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें हमारेसे अलग नहीं हो सकता तथा हम उससे अलग नहीं हो सकते, उसकी प्राप्तिके लिये परिश्रम कैसे ? वह हमें स्वतः-स्वाभाविक, नित्य-निरन्तर प्राप्त है । उसके लिये कुछ करना नहीं है, कुछ लाना नहीं है, कहीं जाना नहीं है ! केवल उसकी तरफ लक्ष्य करना है‒‘संकर सहज सरूपु सम्हारा ।’ इससे सुगम और क्या हो सकता है ?

जैसे ब्राह्मण हर समय अपने ब्राह्मणपनेमें स्थित रहता है (अपने ब्राह्मणपनेको न याद करता है, न भूलता है) तो इसके लिये उसको कोई परिश्रम या अभ्यास नहीं करना पड़ता । ऐसे ही साधकको हर समय अपने होनेपन (स्वरूप) में स्थित रहना है । इसके लिये उसको कोई अभ्यास नहीं करना है । ब्राह्मणपना तो बनावटी (माना हुआ) है, पर अपना होनापन पहलेसे ही स्वतःसिद्ध है । ब्राह्मणपनेमें तो ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ऐसा अहंकार है, पर अपने होनेपनमें कोई अहंकार नहीं है ।

शरीर (संसार) प्रतिक्षण बदल रहा है, नष्ट हो रहा है‒यह प्रत्यक्ष हमारे देखनेमें आता है तो इससे हमारा अविनाशीपना ही सिद्ध होता है । कारण कि नाशवान्‌को अविनाशी ही देख सकता है । बदलनेवालेको न बदलनेवाला ही देख सकता है । अब अपने अविनाशी, न बदलनेवाले स्वरूपमें स्थित होनेके लिये कोई श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि करना चाहे तो भले ही करे, पर वास्तवमें कुछ करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत केवल सत्य तत्त्वको स्वीकार करनेकी जरूरत है । जब झूठी मान्यताके लिये भी अभ्यास नहीं किया था तो फिर सच्ची मान्यताके लिये क्या अभ्यास करना पड़ेगा ? अभ्याससे एक नयी अवस्था बन जायगी, अवस्थातीत बोध नहीं होगा । तत्त्व अवस्था नहीं है, प्रत्युत अवस्थातीत है ।

जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई ।
जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥
                                                (मानस ७ । ११७ । ४)

जब झूठी बात भी इतनी दृढ़ हो सकती है कि छोड़नेमें कठिनाई हो तो फिर सच्ची बात दृढ़ क्यों नहीं हो सकती ?