Dec
02
मनुष्यको
दुःख देनेवाला खुदका संकल्प है । ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये‒यह जो मनकी
धारणा है, इसीसे दुःख होता है । अगर वह संकल्प छोड़ दे तो एकदम योग
(समता) की प्राप्ति हो जायगी‒ ‘सर्वसंकल्पसन्न्यासी
योगारूढस्तदोच्यते’ (गीता ६/४) । अपना ही संकल्प करके आप दुःख पा रहा है
मुफ्तमें ! संकल्पोंका कायदा यह है कि जो संकल्प पूरे
होनेवाले हैं, वे तो पूरे होंगे ही और जो नहीं पूरे होनेवाले हैं, वे पूरे नहीं
होंगे, चाहे आप संकल्प करें अथवा न करें । सब संकल्प किसीके भी पूरे नहीं
हुए, और ऐसा कोई आदमी नहीं है, जिसका कोई संकल्प पूरा नहीं हुआ । तात्पर्य है कि
कुछ संकल्प पूरे होते हैं और कुछ संकल्प पूरे नहीं होते‒यह सबके लिये एक सामान्य
विधान है । जैसा हम चाहें, वैसा ही होगा‒यह बात है नहीं ।
जो होना है, वही होगा ।
होइहि
सोइ जो राम रचि राखा ।
को करि तर्क
बढ़ावै
साखा ॥
(मानस
१/५२/४)
इसलिये अपना
संकल्प रखना दुःखको, पराधीनताको निमन्त्रण देना है । अपना कुछ भी संकल्प न रखें तो
होनेवाला संकल्प पूरा हो जायगा । जैसा तुम चाहो वैसा ही हो जाय‒यह हाथकी बात नहीं
है । अतः संकल्प करके क्यों अपनी इज्जत खोते हो ? कुछ आना-जाना नहीं है ! अगर मनुष्य संकल्पोंका त्याग कर दे तो योगारूढ़ हो जाय,
तत्त्वकी प्राप्ति हो जाय; जो कुछ बड़ा-से-बड़ा काम है, वह हो जाय; यह मनुष्य जन्म
सफल हो जाय, कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहे ! अतः अपना संकल्प कुछ नहीं
रखो । वह संकल्प चाहे भगवान्के संकल्पपर छोड़ दो, चाहे संसारके संकल्पपर छोड़ दो,
चाहे प्रारब्ध (होनहार) पर छोड़ दो और चाहे प्रकृतिपर छोड़ दो[1] । जो अच्छा लगे,
उसीपर छोड़ दो तो दुःख मिट जायगा । भगवान्पर छोड़ दो तो जैसा भगवान् करेंगे, वैसा
हो जायगा । संसारपर छोड़ दो तो संसार (माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्ब-परिवार आदि)
की जैसी मर्जी होगी, वैसे हो जायगा । अपने प्रारब्धपर छोड़ दो तो प्रारब्धके अनुसार
जैसा होना है, वैसा हो जायगा । अपना कोई संकल्प नहीं करना है । अपना संकल्प रखकर
बन्धनके सिवाय और कुछ कर नहीं सकते । होगा वही जो भगवान् करेंगे, जो
प्रारब्धमें है अथवा जो संसारमें होनेवाला है ।
भगवान्ने कहा है‒‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २/४७) ‘कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं
।’ ऐसा करेंगे और ऐसा नहीं करेंगे, शास्त्रसे विरुद्ध काम नहीं करेंगे‒इसमें
तो स्वतन्त्रता है, पर दुःखदायी और सुखदायी परिस्थिति तो आयेगी ही; आप चाहो तो आयेगी,
न चाहो तो आयेगी । करनेमें
सावधान रहना है । शास्त्रकी, सन्त-महात्माओंकी आज्ञाके अनुसार काम करना है ।
इसमें कोई भूल होगी तो वह मिट जायगी । कभी भूलसे कोई विपरीत कार्य हो भी जायगा तो
वह ठहरेगा नहीं, टिकेगा नहीं, मिट जायगा । खास बात इतनी करनी है कि अपना संकल्प
नहीं रखना है । अपना कोई संकल्प न रहे तो आदमी सुखी हो जाय । ‘यूँ भी वाह-वा है और वूँ भी वाह-वा है’ ऐसा हो जाय तो
भी ठीक, वैसा हो जाय तो भी ठीक !
रज्जब
रोष न कीजिये, कोई कहे क्यों ही ।
हँसकर उत्तर दीजिये, हाँ बाबाजी यों ही ॥
[1]
अपना संकल्प भगवान्पर छोड़ दो तो भक्ति मिलेगी, संसारपर छोड़
दो निश्चिन्तता आयेगी और प्रकृतिपर छोड़ दो तो स्वतन्त्रता आयेगी ।
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