चाहे संसारके
संकल्पमें अपना संकल्प मिला दो, चाहे प्रभुके संकल्पमें अपना संकल्प मिला दो, चाहे
प्रारब्धमें अपना संकल्प मिला दो । जैसा होना है, वैसा हो जायगा; कूदाकूदी क्यों
करो ! अपने सब संकल्प छोड़ दो तो जीवन महान् पवित्र हो
जायगा । जो अपने-आप होता है, उसमें अपवित्रता नहीं आती, वह ठीक ही होता है । संसारके
संकल्पसे होगा तो ठीक होगा, भगवान्के संकल्पसे होगा तो ठीक होगा, प्रारब्धसे होगा
तो ठीक होगा । बेठीक होगा ही नहीं । बेठीक तो हम कर लेते
हैं । अपना संकल्प कर लेते हैं तो बेठीक हो जाता है ।
एक स्फुरणा होती
है और एक संकल्प होता है । कोई बात याद आती है‒यह
‘स्फुरणा’ है और ऐसा
होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये‒यह ‘संकल्प’ है । संसारकी स्फुरणा होती रहती है और मिटती रहती है ।
आप जिस स्फुरणाको पकड़ लेते हो, वह संकल्प हो जाता है । संकल्पमें मनुष्य बँध जाता
है‒‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५/१२) । संकल्पसे
कामना पैदा हो जाती है‒ ‘संकल्पप्रभवान्कामान्’ (गीता
६/२४), जो सम्पूर्ण पापों और दुःखोंकी जड़ है । जो सब संकल्पोंका त्याग कर
देता है, वह योगारूढ़ हो जाता है । कितनी सीधी-सरल बात है ! इसमें बेठीक होगा ही
नहीं ।
आप कितना ही ठीक
समझो या बेठीक समझो; जो होना है, वह होगा ही । जो अनुकूल या प्रतिकूल होनेवाला है,
वह तो होगा ही । सर्दी आनी है तो आयेगी ही, गर्मी आनी है तो आयेगी ही । आप
सुख-दुःखी हो जाओ तो आपकी मरजी ! वह आपके सुख-दुःखके अधीन नहीं है । इस तरह
अपने-अपने प्रारब्धका फल आयेगा ही । आप सुखी हो जाओ तो आयेगा, दुःखी हो जाओ तो
आयेगा । एकदम सच्ची बात है ! जो नहीं होना है, वह नहीं होगा । जो होना है, वह हो
जायगा । जो होगा, वह हम अपने-आप देख लेंगे । वह कोई छिपा थोड़े ही रहेगा ! अतः चतुर वही है, जो अपना कोई संकल्प नहीं रखता । सीधी-सादी
बात है, अपना संकल्प न रखे तो निहाल हो जाय आदमी ! क्यों संकल्प रखे और क्यों दुःख पाये !
अपने अनुकूलमें
राजी होना और प्रतिकूलमें नाराज होना‒ये दोनों ही व्यथा हैं । भगवान् कहते हैं कि
‘इन्द्रियोंके जो विषय हैं, वे अनुकूलता और प्रतिकूलताके द्वारा सुख-दुःख देनेवाले
हैं । वे आने-जानेवाले और अनित्य हैं । उनको तुम सह लो । सुख-दुःखमें सम रहनेवाले
जिस धीर मनुष्यको वे व्यथा नहीं पहुँचाते, हलचल पैदा नहीं करते, वह मुक्तिका पात्र
हो जाता है, उसका कल्याण हो जाता है (गीता २/१४-१५)
। गुणोंका जो संग है, वृत्तियोंके साथ जो आसक्ति है, बस, यही ऊँच-नीच योनियोंमें
जन्म लेनेका कारण है‒‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’
(गीता १३/२१) ।
संकल्प मिट जाता
है । कभी पूरा होकर मिट जाता है, कभी न पूरा होकर मिट जाता है । पूरा होना है तो
पूरा होकर मिट जायगा, पूरा नहीं होना है तो ऐसे ही मिट जायगा । यह तो मिटनेवाली
चीज है‒‘आगमापायि-नोऽनित्याः’ । इसको तो सह लो, बस‒‘तांस्तितिक्षस्व’ (गीता २/१४) ।
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