।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल अष्टमी, वि.सं. २०७५ सोमवार
धर्मका सार



श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रु्त्वा चैवावधार्यमताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि    परेषां न समाचरेत् ॥
                                                        (पद्मपुराण, सृष्टि १९/३५७-३५८)

         धर्मसर्वस्व अथात् पूरा-का-पूरा धर्म थोड़ेमें कह दिया जाय, तो वह इतना ही है कि जो बात अपने प्रतिकूल हो, वह दूसरोंके प्रति मत करो । इसमें सम्पूर्ण शास्त्रोंका सार आ जाता है । जैसे, आपका यह भाव रहता है हरे हरेक आदमी मेरी सहायता करे, मेरी रक्षा करे, मेरेपर विश्वास करे, मेरे अनुकूल बने और दूसरा कोई मेरे प्रतिकूल न रहे, मेरेको ठगे नहीं, मेरा कोई नुकसान न करे, मेरा कोई निरादर न करे, तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं दूसरोंकी सहायता करूँ, दूसरेकी रक्षा करूँ, दूसरेपर विश्वास करूँ, दूसरेके अनुकूल बनूँ और किसीके प्रतिकूल न रहूँ, किसीको ठगूँ नहीं, किसीका कोई नुकसान न करूँ, आदि-आदि । इस प्रकार आप खुदके अनुभवका आदर करें तो आप पूरे धर्मात्मा बन जायँगे ।


मेरा कोई नुकसान न करेयह हाथकी बात नहीं है, पर मैं किसीका नुकसान न करूँयह हाथकी बात है । सब-के-सब मेरी सहायता करेंयह मेरे हाथकी बात नहीं है, पर इस बातसे यह सिद्ध होता है कि मैं सबकी सहायता करनेवाला मैं बन जाऊँ । मेरेको कोई बुरा न समझेइससे यह शिक्षा लेनी चाहिये कि मैं किसीको बुरा न समझूँ । यह अनुभवसिद्ध बात है । कोई भी मेरेको बुरा न समझेयह हाथकी बात नहीं है, पर मैं किसीको बुरा न समझूँयह हाथकी बात है । जो हाथकी बात है, उसको करना ही धर्मका अनुष्ठान है । ऐसा करनेवाला पूरा धर्मात्मा बन जाता है । जो धर्मात्मा होता है, उसको सब चाहते हैं । उसकी सबको गरज रहती है । आदमी किसको नहीं चाहता ? जो स्वार्थी होता है, मतलबी होता है, दूसरोंका नुकसान करता है, उसको कोई नहीं चाहता । परन्तु जो तनसे, मनसे, वचनसे, धनसे, विद्यासे, योग्यतासे, पदसे, अधिकारसे दूसरोंका भला करता है, जिसके हृदयमें सबकी सहायता करनेका, सबको सुख पहुँचानेका भाव है, उसको सब लोग चाहने लगते हैं । जिसको सब लोग चाहते हैं, वह ज्यादा सुखी रहता है । कारण कि अभी अपने सुखके लिये अकेले हम ही उद्योग कर रहे हैं तो उसमें सुख थोड़ा होगा, पर दूसरे सब-के-सब हमारे सुखके लिये उद्योग करेंगे तो हम सुखी भी ज्यादा होंगे और हमारेको लाभ भी ज्यादा होगा ।