सब-के-सब हमारे अनुकूल कैसे बनें ? कि हम किसीके भी प्रतिकूल न बनें, किसीके
भी विरुद्ध काम न करें । अपने स्वार्थ और अभिमानमें आकर दूसरेका निरादर कर दें,
तिरस्कार कर दें, अपमान कर दें और दूसरेको बुरा समझें कि यह आदमी बुरा है, तो फिर
दूसरा हमारा आदर-सम्मान करे, हमें अच्छा समझे इसके लायक हम नहीं हैं । जबतक हम
किसीको बुरा आदमी समझते हैं, तबतक हमें कोई कोई बुरा आदमी न समझे—इस बातके हम हकदार नहीं होते । इसके हकदार हम तभी होते हैं,
जब हम किसीको बुरा न समझें । अब कहते हैं कि बुरा कैसे न समझें ? उसने हमारा बिगाड़
किया है, हमारे धनका नुकसान किया है, हमारा अपमान किया है, हमारी निन्दा की है !
तो इसपर आप थोड़ी गंभीरतासे विचार करें । उसने हमारा जो नुकसान किया है, वह हमारा
नुकसान होनेवाला था । हमारा नुकसान न होनेवाला हो और दूसरा हमारा नुकसान कर दे—यह हो ही नहीं सकता । परमात्माके राज्यमें हमारा जो नुकसान
होनेवाला नहीं था, उस परमात्माके रहते हुए दूसरा हमारा वह नुकसान कैसे कर देगा ?
हमारा तो वही नुकसान हुआ, जो अवश्यम्भावी था । दूसरा उसमें निमित्त बनकर पापका
भागी बन गया; अतः उसपर दया आनी चाहिये । अगर वह निमित्त न बनता, तो भी हमारा
नुकसान होता, हमारा अपमान होता । वह खुद हमारा नुकसान करके, हमारा अपमान करके
पापका भागी बन गया, तो वह भूला हुआ है । भूले हुएको रास्ता दिखाना हमारा काम है या
धक्का देना ? अतः उस बेचारेको बचाओ कि उसने मेरा नुकसान किया ही, वैसे किसी औरका
नुकसान कर दे । ऐसा भाव जिसके भीतर होता है, वह धर्मात्मा है, महात्मा होता है,
श्रेष्ठ पुरुष होता है ।
‘गीत-गोविन्द’ की रचना करनेवाले पण्डित
जयदेव एक बड़े अच्छे सन्त हुए हैं । एक राजा उनपर बहुत भक्ति रखता था और उनका सब
प्रबन्ध अपनी तरफसे ही किया करता था । वे ब्राह्मण देवता (जयदेव) त्यागी थे और
गृहस्थ होते हुए भी ‘मेरेको कुछ मिल जाय, कोई धन दे दे’—ऐसा चाहते नहीं थे । उनकी स्त्री भी बड़ी विलक्षण पतिव्रता
थी; क्योंकि उनका विवाह भगवान्ने करवाया था, वे विवाह करना नहीं चाहते थे । एक
दिनकी बात है, राजाने उनको बहुत-सा धन दिया, लाखों रुपयोंके रत्न दिये । उनको लेकर
वे वहाँसे रवाना हुए और घरकी तरफ चले । रास्तेमें जंगल था । डाकुओंको इस बातका पता
लग गया । उन्होंने जंगलमें जयदेवको घेर लिया और उनके पास जो धन था, वह सब छीन लिया
। डाकुओंके मनमें आया कि यह राजाका गुरु है, कहीं
जीता रह जायगा तो हमारेको पकड़वा देगा । अतः उन्होंने जयदेवके दोनों हाथ काट
लिये और उनको एक सूखे कुएँमें गिरा दिया । जयदेव कुएँके भीतर पड़े रहे । एक-दो
दिनमें राजा जंगलमें आया । उसके आदमियोंने पानी लेनेके लिये कुएँमें लोटा डाला तो
वे कुएँमेंसे बोले कि ‘भाई, ध्यान रखना, मेरेको लग न जाय । इसमें जल नहीं है, क्या
करते हो !’ उन लोगोंने आवाज सुनी तो बोले कि यह आवाज तो पण्डितजीकी है ! पण्डितजी
यहाँ कैसे आये ! उन्होंने राजाको कहा कि महाराज ! पण्डितजी तो कुएँमेंसे बोल रहे
हैं । राजा वहाँ गया । रस्सा डालकर उनको कुएँमेंसे निकाला, तो देखा कि उनके दोनों
हाथ कटे हुए हैं । उनसे पूछा गया कि कैसे हुआ ? तो वे बोले कि भाई देखो, जैसा
हमारा प्रारब्ध था, वैसा हो गया । उनसे बहुत कहा गया कि बताओ तो सही, कौन है, कैसा
है । परन्तु उन्होंने कुछ नहीं बताया, यही कहा कि हमारे कर्मोंका फल है । राजा
उनको घरपर ले गये । उनकी मलहम-पट्टी की, इलाज किया और खिलाने-पिलाने आदि सब तरहसे
उनकी सेवा की ।
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