एक दिनकी बात है । जिन्होंने जयदेवके हाथ काटे थे, वे चारों
डाकू साधुके वेशमें कहीं जा रहे थे । उनको राजाने भी देखा और जयदेवने भी । जयदेवने
उनको पहचान लिया कि ये वही डाकू हैं । उन्होंने राजासे कहा कि कि देखो राजन् ! तुम
धन लेनेके लिये बहुत आग्रह किया करते हो । अगर धन देना हो तो वे जो चारों जा रहे
हैं, वे मेरे मित्र हैं, उनको धन दे दो । मेरेको धन दो या मेरे मित्रोंको दो, एक
ही बात है । राजाको आश्चर्य हुआ कि पण्डितजीने कभी
उम्रभरमें किसीके प्रति ‘आप दे दो’ ऐसा नहीं कहा, पर आज इन्होंने कह दिया है !
राजाने उन चारोंको बुलवाया । वे आये और उन्होंने देखा कि हाथ कटे हुए पण्डितजी
वहाँ बैठे हैं, तो उनके प्राण सूखने लगे कि अब कोई आफत आयेगी ! अब ये हमें मरवा
देंगे । राजाने उनके साथ बड़े आदरका बर्ताव किया और उनको खजानेमें ले गया । उनको
सोना, चाँदी, मुहरें आदि खूब दिये । लेनेमें तो उन्होंने खूब धन ले लिया, पर
पासमें बोझ ज्यादा हो गया । अब क्या करें ? कैसे ले जायँ ? तो राजाने अपने
आदमियोंसे कहा कि इनको पहुँचा दो । धनको सवारीमें रखवाया और सिपाहियोंको साथमें
भेज दिया । वे जा रहे थे । रास्तेमें उन सिपाहियोंमें जो बड़ा अफसर था, उसके मनमें
आया कि पण्डितजी किसीको भी देनेके लिये कहते ही नहीं और आज देनेके लिये कह दिया,
तो क्या बात है ! उसने उनसे पूछा कि महाराज, आप बताओ कि आपने पण्डितजीका क्या
उपकार किया है ? पण्डितजीके साथ आपका क्या सम्बन्ध है ? आज हमने पण्डितजीके स्वभाव
विरुद्ध बात देखी है । बहुत वर्षोंसे देखता हूँ कि पण्डितजी किसीको ऐसा नहीं कहते
तुम इसको दे दो, पर आपके लिये ऐसा कहा, तो बात क्या है ? वे चारों आपसमें
एक-दूसरेको देखने लगे, फिर बोले कि ‘ये एक दिन मौतके मुँहमें जा रहे थे तो हमने
इनको मौतसे बचाया । इनके हाथ ही कटे, नहीं
तो गला कट जाता ! उस दिनका ये बदला चुका रहे हैं ।’ उनकी
इतनी बात पृथ्वी सह नहीं सकी । पृथ्वी फट गयी और वे चारों पृथ्वीमें समा गये !
अब वे वहाँसे लौट पड़े और आकर सब बात बतायी । उनकी बात सुनकर पण्डितजी जोर-जोरसे
रोने लग गये ! रोते-रोते आँसू पोंछने लगे तो उनके हाथ साबुत हो गये । यह देखकर
राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह क्या तमाशा है ! हाथ कैसे आ गये ? राजाने सोचा कि वे
इनके कोई धनिष्ठ-मित्र थे, इसलिये उनके मरनेसे पण्डितजी रोते हैं । उनसे पूछा कि
महाराज, बताओ तो सही, बात क्या है ? हमारेको तो आप उपदेश देते हैं कि शोक नहीं
करना चाहिये, चिन्ता नहीं करनी चाहिये, फिर मित्रोंका नाश होनेसे आप क्यों रोते
हैं ? शोक क्यों करते हैं ? तो वे बोले कि ये जो चार आदमी थे, इन्होंने ही मेरेसे
धन छीन लिया और हाथ काट दिये । राजाने बड़ा आश्चर्य किया और कहा कि महाराज, हाथ
काटनेवालोंको आपने मित्र कैसे कहा ? जयदेव बोले कि देखो
राजन् ! एक जबानसे उपदेश देता है और एक क्रियासे उपदेश देता है । क्रियासे उपदेश
देनेवाला ऊँचा होता है । मैंने जिन हाथोंसे आपसे धन लिया, रत्न लिये, वे हाथ काट
देने चाहिये । यह काम उन्होंने कर दिया और धन भी ले गये । अतः उन्होंने मेरा उपकार
किया, मेरेपर कृपा की, जिससे मेरा पाप काट गया । इसलिये वे मेरे मित्र हुए । रोया
मैं इस बातके लिये कि लोग मेरेको सन्त कहते हैं, अच्छा पुरुष कहते हैं, पण्डित कहते
हैं, धर्मात्मा कहते हैं और मेरे कारणसे उन बेचारोंके प्राण चले गये ! अतः मैंने भगवान्को
रो करके प्रार्थना की कि हे नाथ ! मेरेको लोग अच्छा आदमी कहते हैं तो बड़ी गलती
करते हैं ! मेरे कारणसे आज चार आदमी मर
गये, तो मैं अच्छा कैसे हुआ ? मैं बड़ा दुष्ट हूँ । हे नाथ ! मेरा कसूर माफ करो ।
अब मैं क्या करूँ ? मेरे हाथकी बात कुछ रही नहीं; अतः प्रार्थनाके सिवा और मैं
क्या कर सकता हूँ । राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ और बोला कि महाराज, आप अपनेको
अपराधी मानते हो कि चार आदमी मेरे कारण मर गये, तो फिर आपके हाथ कैसे आ गये ? वे बोले
कि भगवान् अपने जनके अपराधोंको, पापोंको, अवगुणोंको
देखते ही नहीं ! उन्होंने कृपा की तो हाथ आ गये ! राजाने कहा कि महाराज,
उन्होंने आपको इतना दुःख दिया तो आपने उनको धन
क्यों दिलवाया ? वे बोले कि देखो राजन् ! उनको धनका लोभ था और लोभ होनेसे
वे और किसीके हाथ काटेंगे; अतः विचार किया कि आप धन देना चाहते ही हैं तो उनको
इतना धन दे दिया जाय कि जिससे बेचारोंको कभी किसी निर्दोषकी हत्या न करनी पड़े ।
मैं तो सदोष था, इसलिये मुझे दुःख दे दिया । परन्तु वे किसी निर्दोषको दुःख न दे
दें, इसलिये मैंने उनको भरपेट धन दिलवा दिया । राजाको बड़ा आश्चर्य आया ! उसने कहा
कि आपने मेरेको पहले क्यों नहीं बताया ? वे बोले कि
महाराज ! अगर पहले बताता तो आप उनको दण्ड देते । मैं उनको दण्ड नहीं दिलाना चाहता
था । मैं तो उनकी सहायता करना चाहता था; क्योंकि उन्होंने मेरे पापोंका नाश किया,
मेरेको क्रियात्मक उपदेश दिया । मैंने तो अपने पापोंका फल भोगा, इसलिये मेरे हाथ कट
गये । नहीं तो भगवान्के दरबारमें, भगवान्के रहते हुए कोई किसीको अनुचित दण्ड दे
सकता है ? कोई नहीं दे सकता । यह तो उनका उपकार है कि मेरे पापोंका फल भुगताकर
मेरेको शुद्ध कर दिया ।