।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल एकादशी, वि.सं. २०७५ गुरुवार
पुत्रदा एकादशी-व्रत (सबका)
धर्मका सार



इस कथासे सिद्ध होता है, सुख या दुःखको देनेवाला कोई दूसरा नहीं है; कोई दूसरा सुख-दुःख देता हैयह समझना कुबुद्धि है‘सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा’ (अध्यात्म २/६/६) । दुःख तो हमारे प्रारब्धसे मिलता है, पर उसमें कोई निमित्त बन जाता है तो उसपर दया आनी चाहिये कि बेचारा मुफ्तमें ही पापका भागी बन गया ! रामायणमें आता है कि वनवासके लिये जाते समय रात्रिको रामजी निषादराज गुहके यहाँ ठहरे । निषादराजने कहा‘कैकयीनंदिनी मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह । जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ॥’ (मानस २/९१) तब लक्ष्मणजीने कहा‘काहु न कोई सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥’ (मानस २/९२/२) अतः दूसरा मेरेको दुःख देता है, मेरा अपमान करता है, मेरी निन्दा करता हैऐसा जो विचार आता है, यह कुबुद्धि है, नीची बुद्धि है । वास्तवमें दोष उसका नहीं है, दोष है हमारे पापोंका, हमारे कर्मोंका । इसलिये परमात्माके राज्यमें कोई हमारेको दुःख दे ही नहीं सकता । हमारेको जो दुःख मिलता है, वह हमारे पापोंका ही फल है । पापका फल भोगनेसे पाप कट जायगा और हम शुद्ध हो जायँगे । अतः कोई हमारा नुकसान करता है, अपमान करता है, निन्दा करता है, तिरस्कार करता है, वह हमारे पापोंका नाश कर रहा हैऐसा समझकर उसका उपकार मानना चाहिये, प्रसन्न होना चाहिये ।

किसीके द्वारा हमारेको दुःख हुआ तो वह हमारे प्रारब्धका फल है; परन्तु अगर हम उस आदमीको खराब समझेंगे, गैर समझेंगे, उसकी निन्दा करेंगे, तिरस्कार करेंगे, दुःख देंगे, दुःख देनेकी भावना करेंगे, तो अपना अन्तःकरण मैला हो जायगा, हमारा नुकसान हो जायगा ! इसलिये सन्तोंका यह स्वभाव होता है कि दूसरा उनकी बुराई करता है, तो भी वे उसकी भलाई करते हैं‘उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥’ (मानस ५/४१/४) ऐसा सन्त-स्वभाव हमें बनाना चाहिये । अतः कोई दुःख देता है तो उसके प्रति सद्भावना रखो, उसको सुख कैसे मिलेयह भाव रखो । उसमें दुर्भावना करके मनको मैला कर लेना मनुष्यता नहीं है । इसलिये तनसे, मनसे, वचनसे सबका हित करो, किसीको दुःख न दो । जो तन-मन-वचनसे किसीको दुःख नहीं देता, वह इतना शुद्ध हो जाता है कि उसका दर्शन करनेसे पाप नष्ट होते हैं !

तन कर मन कर वचन कर, देत न काहू दुक्ख ।
तुलसी पातक हरत  है,  देखत  उसको  मुक्ख ॥

नारायण !   नारायण !!   नारायण !!!


‘साधन-सुध-सिन्धु’ पुस्तकसे