इस कथासे सिद्ध होता है, सुख या दुःखको देनेवाला
कोई दूसरा नहीं है; कोई दूसरा सुख-दुःख देता है—यह समझना कुबुद्धि है—‘सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति
कुबुद्धिरेषा’ (अध्यात्म॰ २/६/६) । दुःख तो हमारे प्रारब्धसे मिलता है, पर उसमें कोई निमित्त बन जाता है तो
उसपर दया आनी चाहिये कि बेचारा मुफ्तमें ही पापका भागी बन गया ! रामायणमें आता है
कि वनवासके लिये जाते समय रात्रिको रामजी निषादराज गुहके यहाँ ठहरे । निषादराजने
कहा—‘कैकयीनंदिनी मंदमति
कठिन कुटिलपनु कीन्ह । जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ॥’ (मानस २/९१) तब लक्ष्मणजीने कहा—‘काहु न कोई सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥’
(मानस २/९२/२) अतः दूसरा
मेरेको दुःख देता है, मेरा अपमान करता है, मेरी निन्दा करता है—ऐसा जो विचार आता है, यह कुबुद्धि है, नीची बुद्धि है ।
वास्तवमें दोष उसका नहीं है, दोष है हमारे
पापोंका, हमारे कर्मोंका । इसलिये परमात्माके राज्यमें कोई हमारेको दुःख दे
ही नहीं सकता । हमारेको जो दुःख मिलता है, वह हमारे पापोंका ही फल है । पापका फल
भोगनेसे पाप कट जायगा और हम शुद्ध हो जायँगे ।
अतः कोई हमारा नुकसान करता है, अपमान करता है, निन्दा
करता है, तिरस्कार करता है, वह हमारे पापोंका नाश कर रहा है—ऐसा समझकर उसका उपकार मानना चाहिये, प्रसन्न होना
चाहिये ।
किसीके द्वारा हमारेको दुःख हुआ तो वह हमारे
प्रारब्धका फल है; परन्तु अगर हम उस आदमीको खराब समझेंगे, गैर समझेंगे, उसकी
निन्दा करेंगे, तिरस्कार करेंगे, दुःख देंगे, दुःख देनेकी भावना करेंगे, तो अपना अन्तःकरण
मैला हो जायगा, हमारा नुकसान हो जायगा ! इसलिये सन्तोंका यह स्वभाव होता है कि
दूसरा उनकी बुराई करता है, तो भी वे उसकी भलाई करते हैं—‘उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥’
(मानस ५/४१/४) ऐसा
सन्त-स्वभाव हमें बनाना चाहिये । अतः कोई दुःख देता है
तो उसके प्रति सद्भावना रखो, उसको सुख कैसे मिले—यह भाव रखो । उसमें दुर्भावना करके मनको मैला कर
लेना मनुष्यता नहीं है । इसलिये तनसे, मनसे, वचनसे सबका हित करो, किसीको दुःख न दो
। जो तन-मन-वचनसे किसीको दुःख नहीं देता, वह इतना शुद्ध हो जाता है कि उसका दर्शन
करनेसे पाप नष्ट होते हैं !
तन कर मन कर वचन कर, देत न काहू दुक्ख ।
तुलसी पातक हरत है, देखत उसको मुक्ख ॥
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
—‘साधन-सुध-सिन्धु’ पुस्तकसे
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