एक विशेष लाभकी और बहुत सीधी-सरल बात है । जीनेकी इच्छा,
करनेकी इच्छा और पानेकी इच्छा—ये तीन
इच्छाएँ हैं । ये तीन इच्छाएँ जितनी प्रबल होंगी, उतनी
ही संसारमें अधिक फँसावट होंगी और वास्तविक तत्त्वको समझनेमें बड़ी भारी बाधा लगेगी
। यदि इच्छाएँ मिट जायँ, तो बहुत-ही सीधा काम है ।
कल जो बात कही थी, उसे यह जीनेकी इच्छा ही समझने नहीं देती ।
इस इच्छासे मिलता कुछ नहीं, फायदा कुछ नहीं । सिवाय नुकसानके कोई फायदा नहीं । यह
जो बात है कि जितनी उम्र बीत गयी, उतने हम मर गये, तो जीनेकी इच्छा प्रबल होनेसे
ही यह बात समझमें नहीं आती । अब पावभर उम्र चली गयी तो पावभर मर गये, आधी उम्र चली
गयी तो आधे मर गये और पूरी उम्र चली गयी तो पूरे मर गये । अब इसमें शंका क्या है ?
जैसे सरोवरमें जल आ जाय, तो पानी समाप्त होनेपर कहते हैं ‘पानी खूट गया’ (समाप्त
हो गया) ऐसे ही आदमी मर जाय तो कहते हैं ‘खूट गया’ । पानी जिस दिन भरा, उसी दिन
नहीं खूटा । वह खूटते-खूटते खूट गया । पानी तो निरन्तर खूटता है और एक दिन पूरा
खूट गया । ऐसे ही मनुष्य निरन्तर खूटता है । अब इसमें नयी बात कौन-सी ? तो यह सब-का-सब संसार खूट रहा है, खत्म हो रहा है ।
महाभारतके वनपर्वमें यक्ष और महाराज युधिष्ठिरका संवाद आता
है । वहाँ यक्षने प्रश्न किया कि आश्चर्यकी बात क्या है ? इसका उत्तर महाराज
युधिष्ठिर देते हैं ।
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम् ।
शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥
(महा॰ वन॰ ३१३/११६)
‘संसारमें प्रतिदिन ही जीव यमलोकको जा रहे
हैं, फिर भी बचे हुए लोग यहाँ सदा जीते रहनेकी इच्छा करते हैं । इससे बढ़कर आश्चर्य
और क्या होगा ?’ ‘अहन्यहनि’ अर्थात् प्रत्येक दिन ही प्राणी यमलोकमें जा
रहे हैं । प्रत्येक दिन कैसे ? जिस दिन जन्मा है, उसी दिनसे यमलोक नजदीक आ रहा है ।
तो जितने दिन बीत गये, उतनी उम्र तो कम हो ही गयी, उतनी
मौत नजदीक आ ही गयी । इसमें संदेह नहीं है । दर्शन प्रतिक्षण अदर्शनमें जा रहा है
। एक दिन नष्ट हो जायगा तो दीखेगा नहीं । संसार प्रतिक्षण ‘नहीं’ में जा रहा है ।
यदि वर्तमानमें ही सब-का-सब नहींमें मान लें तो वर्तमानमें ही तत्व-साक्षात्कार,
ब्रह्मज्ञान, तत्त्वज्ञान, मुक्ति, आत्म-साक्षात्कार हो जाय ।
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