किसी वस्तुकी
प्राप्ति होनेपर ही उसका निषेध किया जाता है—‘प्राप्तौ सत्यां निषेधः’ । यह कोई नहीं कहता कि ‘घोड़ीका
अण्डा नहीं होता’; क्योंकि जो होता ही नहीं, उसका निषेध करना बनता ही नहीं । ऐसे
ही अगर ईश्वर है ही नहीं तो फिर ‘ईश्वर नहीं है’—ऐसा कहना बनता ही नहीं । ऐसा कहना तभी बनता है,
जब ईश्वर हो । अतः ‘ईश्वर नहीं है’—ऐसा कहनेसे भी ईश्वरका होना सिद्ध होता है ।
जो मनुष्य अँग्रेजी भाषाको मानता है, वह उसको सीखनेका
अभ्यास करेगा तो उसको अँग्रेजी भाषा आ जायगी । परन्तु जो मनुष्य अँग्रेजी भाषाको
मानता ही नहीं, वह उसको सीखनेका अभ्यास भी क्यों करेगा ? जैसे, किसीका अँगेजी
भाषामें तार आया तो अँगेजी भाषाके जानकार व्यक्तिने उस तारको पढ़ा कि अमुक व्यक्ति
ज्यादा बीमार है । वहाँ जाकर देखा तो बात सच्ची निकाली, आदमी ज्यादा बीमार था । अतः मानना पड़ेगा कि अँगेजी
भाषा है, तभी तो तारमें लिखी बात सच्ची निकली । ऐसे ही जो ईश्वरकी
प्राप्तिमें सच्चे हृदयसे लगे हुए हैं, उनमें सामान्य (जो ईश्वरकी
प्राप्तिमें नहीं लगे, ऐसे) मनुष्योंसे विशेषता दीखती है । उनके संगसे, भाषणसे शान्ति
मिलती है । केवल मनुष्योंको ही नहीं, प्रत्युत पशु-पक्षी आदिको भी उनसे शान्ति
मिलती है । जिनको ईश्वरकी प्राप्ति हो गयी है, उनमें बहुत विलक्षण आ जाती है, जो
कि सामान्य मनुष्योंमें नहीं होती । अगर ईश्वर नहीं है तो उनमें विलक्षणता कहाँसे
आयी ? अतः मानना ही पड़ेगा कि ईश्वर है ।
मनुष्यमात्र अपनेमें एक कमीका, अपूर्णताका अनुभव
करता है । अगर इस अपूर्णताकी पूर्तिकी कोई चीज नहीं होती तो मनुष्यको अपूर्णताका
अनुभव होता ही नहीं । जैसे,मनुष्यको
भूख लगती है तो सिद्ध होता है कि कोई खाद्य वस्तु है । अगर खाद्य वस्तु नहीं होती
तो मनुष्यको भूख लगती ही नहीं । प्यास लगती है तो सिद्ध होता है कि कोई पेय वस्तु
है । अगर पेय वस्तु नहीं होती तो मनुष्यको प्यास लगती ही नहीं । ऐसे ही मनुष्यको
अपूर्णताका अनुभव होता है तो इससे सिद्ध होता है कि कोई पूर्ण तत्त्व है । अगर
पूर्ण तत्त्व नहीं होता तो मनुष्यको अपूर्णताका
अनुभव होता ही नहीं । उस पूर्ण तत्त्वको ही ईश्वर कहते
हैं ।
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