।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं. २०७५ मंगलवार
हम ईश्वरको क्यों मानें?



जो वस्तु होती है, उसीको प्राप्त करनेकी इच्छा होती है । जो वस्तु नहीं होती, उसको प्राप्त करनेकी इच्छा होती ही नहीं । जैसे, किसीके मनमें यह इच्छा होती है कि मैं आकाशके फल खाऊँ, आकाशके फुल सूँघूँ; क्योंकि आकाशमें फल-फूल लगते ही नहीं । मनुष्यमात्रमें यह इच्छा रहती है कि मैं सदा जीता रहूँ (कभी मरूँ नहीं); सब कुछ जान लूँ (कभी अज्ञानी न रहूँ) और सदा सुखी रहूँ (कभी दुःखी न होऊँ) । मैं सदा जीता रहूँयह ‘सत्’ की इच्छा है, मैं सब जान लूँयह ‘चित्’ की इच्छा है और मैं सदा सुखी रहूँयह ‘आनन्द’ की इच्छा है । इससे सिद्ध हुआ कि ऐसा कोई सच्‍चिदानन्द-स्वरूप तत्त्व है, जिसको प्राप्त करनेकी इच्छा मनुष्यमात्रमें है । उसी तत्त्वको ईश्वर कहते हैं ।

कोई भी मनुष्य अपनेसे किसीको बड़ा मानता है तो उसने वास्तवमें ईश्वरवादको स्वीकार कर लिया; क्योंकि बड़प्पनकी परम्परा जहाँ समाप्त होती है, वही ईश्वर है‘पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ।’ (पातंजलयोगदर्शन १/२६) । कोई व्यक्ति होता है तो उसका पिता होता है और उसके पिताका भी कोई पिता होता है  । यह परम्परा जहाँ समाप्त होती है, उसका नाम ईश्वर है‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता ११/४३) । कोई बलवान् होता है तो उससे भी अधिक कोई बलवान् होता है । यह बलवत्ताकी अवधि जहाँ समाप्त होती है, उसका नाम ईश्वर है; क्योंकि उसके समान बलवान् कोई नहीं । कोई विद्वान होता है तो उससे भी अधिक कोई विद्वान होता है । यह विद्वताकी अवधि जहाँ समाप्त होती है, उसका नाम ईश्वर है; क्योंकि उसके समान विद्वान कोई नहीं‘गुरूर्गरीयान्’ (गीता ११/४३) तात्पर्य है कि बल, बुद्धि, विद्या, योग्यता, ऐश्वर्य, शोभा आदि गुणोंकी अवधि जहाँ समाप्त होती है, वही ईश्वर है; क्योंकि उसके समान कोई नहीं है‘न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यः’ (गीता ११/४३)


वास्तवमें ईश्वर माननेका ही विषय है, विचारका विषय नहीं । विचारका विषय वही होता है, जिसमें जिज्ञासा होती है और जिज्ञासा उसीमें होती है, जिसके विषयमें हम कुछ जानते हैं और कुछ नहीं जानते । परन्तु जिसके विषयमें हम कुछ भी नहीं जानते, उसके विषयमें जिज्ञासा नहीं होती, उसपर विचार नहीं होता । उसको तो हम मानें या न मानेंइसमें हम स्वतन्त्र हैं । जैसे, जगत् हमारे देखनेमें आता है, पर जगत् तत्त्वसे क्या हैइसको हम नहीं जानते; अतः जगत् विचारका विषय है । ऐसे ही जीवात्मा स्थावर-जंगमरूपसे शरीरधारी दीखता है, पर जीवात्मा तत्त्वसे क्या हैइसको हम नहीं जानते; अतः जीवात्मा विचारका विषय है । परन्तु ईश्वरके विषयमें हम कुछ नहीं जानते; अतः ईश्वर विचारका (तर्कका) विषय नहीं है, प्रत्युत माननेका (श्रद्धाका) विषय है । शास्त्रोंसे और ईश्वरको प्राप्त हुए, ईश्वरका साक्षात्कार किये हुए सन्त-महापुरुषोंसे सुनकर ही ईश्वरको माना जाता है । शास्त्र और सन्तये भी माननेके विषय हैं । जैसे वेद, पुराण आदिको हिन्दू मानते हैं, पर मुसलमान नहीं मानते । ऐसे ही सन्त-महापुरुषोंको कुछ लोग मानते हैं, पर कुछ लोग नहीं मानते, प्रत्युत उनको साधारण मनुष्य ही समझते हैं ।