।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण तृतीया, वि.सं. २०७५ बुधवार
हम ईश्वरको क्यों मानें?



अन्य दर्शनोंकी अपेक्षा गीतामें ईश्वरवाद विशेषरूपसे आया है । न्याय, वैशेषिक, योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसाये छहों दर्शन केवल जीवके कल्याणके लिये ही हैं; परन्तु इनमें ईश्वरका वर्णन मुख्यातासे नहीं हुआ है । इनमेंसे ‘न्यायदर्शन’ में ‘जो कुछ होता है, वह सब ईश्वरकी इच्छासे ही होता है’इस तरह ईश्वरका आदर तो किया गया है, पर मुक्तिमें वह ईश्वरकी आवश्यकता नहीं मानता । वह इक्‍कीस प्रकारके दुःखोंके ध्वंसको ही मुक्ति बताता है । ‘वैशेषिकदर्शन’ में भी जीवके कल्याणके लिये ईश्वरकी आवश्यकता न बताकर आध्यात्मिक, आदिदैविक और आधिभौतिकइन तीनों तापोंका नाश बताया गया है । ‘योगदर्शन’ में मुख्यरूपसे चित्तवृत्तियोंके निरोधकी बात आयी है । चित्तवृत्तियोंके निरोधसे स्वरूपमें स्थिति हो जाति है । हाँ, चित्तवृत्ति-निरोधमें ईश्वरप्रणिधान-(शरणागति-) को भी एक उपाय बताया गया है, पर इस उपायकी प्रधानता नहीं है । ‘सांख्यदर्शन’ और ‘पूर्वमीमांसादर्शन’ तो जीवके कल्याणके लिये ईश्वरकी कोई आवश्यकता ही नहीं समझते । ‘उत्तरमीमांसा’-(वेदान्तदर्शन-) में ईश्वरकी बात विशेषरूपसे नहीं आयी है, प्रत्युत जीव और ब्रह्मकी एकताकी बात ही विशेषरूपसे आयी है । वैष्णवाचार्योंने भी ईश्वरकी विशेषता बतायी है, पर जैसी गीताने बतायी है, वैसी नहीं बतायी ।

गीतामें ईश्वर-भक्तिकी बात मुख्यरूपसे आयी है । अर्जुन जबतक भगवान्‌के शरण नहीं हुए, तबतक भगवान्‌ने उपदेश नहीं दिया । जब अर्जुन भगवान्‌के शरण होकर अपने कल्याणकी बात पूछी, तब भगवान्‌ने गीताका उपदेश आरम्भ किया । उपदेशके अन्तमें भी भगवान्‌ने ‘मामेकं शरणं व्रज’ (१८/६६) कहकर अपनी शरणागतिको अत्यन्त गोपनीय और श्रेष्ठ बताया और अर्जुनने भी ‘करिष्ये वचनं तव’ (१८/७३) कहकर पूर्ण शरणागतिको स्वीकार किया ।

गीतोक्त कर्मयोगमें भी ईश्वरकी आज्ञारूपसे ईश्वरकी मुख्यता आयी है; जैसे‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (२/४७); ‘योगस्थ कुरु कर्माणि’ (२/४८); ‘नियतं कुरु कर्म त्वम्’ (३/८); ‘कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम्’ (४/१५) आदि-आदि । ऐसे ही गीतोक्त ज्ञानयोगमें भी ईश्वरकी अव्यभिचारिणी भक्तिको ज्ञान-प्राप्तिका साधन बताया गया है (१३/१०; १४/२६)

गीताके मूल पाठका अध्ययन करनेसे ही पता चलता है कि जीवके कल्याणके लिये ईश्वरकी अत्यधिक आवश्यकता है !