एक
सिद्धान्त है कि जो आदि और अन्तमें है, वह वर्तमानमें भी है तथा जो आदि और अन्तमें
नहीं है, वह वर्तमानमें भी नहीं है । अगर वर्तमानमें हम अस्सी-नब्बे
वर्षके हैं तो नब्बे वर्षके पहले यह शरीर, घर, कुटुम्ब, धन हमारा नहीं था और
नब्बे-सौ वर्षोंके बाद हमारा नहीं रहेगा; अतः वर्तमानमें भी यह हमारा नहीं है ।
इसका निरन्तर वियोग हो रहा है । परन्तु परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध पहले भी था,
आगे भी रहेगा और वर्तमानमें भी है । तात्पर्य है कि परमात्माका अंश होनेसे उनके
साथ हमारा निरन्तर योग है । सुख लेनेके लिये हम नाशवान्से
सम्बन्ध जोड़ लेते हैं–इसका नाम आसक्ति है । हमें सुख लेना नहीं है,
प्रत्युत सुख देना है । अगर
हम केवल दूसरोंको सुख पहुँचानेमें, दूसरोंका हित करनेमें, दूसरोंकी सेवा करनेमें
लग जायँ तो हमारी आसक्ति मिट जायगी । परन्तु गलती यह होती है कि हम सुख
लेनेके लिये दूसरोंको सुख पहुँचाते हैं । जैसे व्यापारी मुनाफेके लिये वस्तुएँ
खरीदता है और मुनाफेके लिये बिक्री करता है, ऐसे ही हम अपने सुखके लिये दूसरोंसे सम्बन्ध जोड़ते हैं और अपने
सुखके लिये सम्बन्ध तोड़ते हैं । इस प्रकार हमने अपने सुखको ही पकड़ रखा है–यह
आसक्ति है ।
हमें नाशवान्का सुख नहीं लेना है, प्रत्युत
अविनाशी सुख लेना है । वह अविनाशी सुख (आनन्द) नित्यप्राप्त है । जैसे पृथ्वीपर
रात और दिन दोनों होते हैं, पर सूर्यमें न रात है और न रातके साथ रहनेवाला दिन है
। वहाँ तो नित्य दिन (प्रकाश) है । ऐसे ही संसारमें सुख और दुःख दो होते हैं, पर
परमात्मामें न सुख है, न दुःख है, प्रत्युत नित्य सुख (आनन्द) है–
राम सच्चिदानंद
दिनेसा । नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥
(मानस १/११६/३)
वस्तुका त्याग नहीं करना है, प्रत्युत
उससे सुख लेनेकी आशा, कामना और भोगका त्याग करना है । शरीरका त्याग
करेंगे तो मर जायँगे; अतः शरीरसे सुख लेनेकी इच्छाका, उससे जीते रहनेकी इच्छाका
त्याग करना है । इसी तरह वस्तुओंसे, व्यक्तियोंसे सुख लेनेकी इच्छाका त्याग करना
है । जैसे, सर्दीके दिनोंमें रजाई आदि लें तो सुख लेनेके लिये नहीं, प्रत्युत
सर्दीसे बचनेके लिये । अमुक रजाई बढ़िया हो या घटिया हो, कम्बल हो या टाट हो, हमें
तो केवल शीतका निवारण करना है–यह आसक्ति नहीं है, प्रत्युत आवश्यकता है । आसक्ति और आवश्यकता–दोनों अलग-अलग हैं । संसारकी आसक्ति अथवा
कामना होती है और परमात्माकी प्रियता अथवा आवश्यकता होती है । आवश्यकता पूरी
होनेवाली होती है और कामना मिटनेवाली होती है । जो मिटनेवाली है, उसका त्याग
करनेमें क्या बाधा है ?
बालक जन्मता
है तो वह बड़ा होगा कि नहीं, पढ़ेगा कि नहीं, उसके पास धन होगा कि नहीं आदि सब
बातोंमें सन्देह है, पर वह मरेगा कि नहीं–इसमें कोई सन्देह नहीं है । वह जरूर
मरेगा । अगर हम निःसन्देह
बातको धारण नहीं करेंगे तो फिर क्या धारण करेंगे ? निःसन्देह बातको धारण
करनेसे हमें दुःखी नहीं होना पड़ेगा । अतः जिसका वियोग
अवश्यम्भावी है, उसके वियोगको वर्तमानमें ही स्वीकार कर लें । जिसका वियोग हो
जायगा, उससे सुखकी इच्छा क्यों रखें ? उससे सुखकी इच्छा रखेंगे तो उसका
हमारेसे वियोग होनेपर भी रोना पड़ेगा और हमारा उससे वियोग होनेपर भी रोना पड़ेगा । अगर पहलेसे ही सुखकी इच्छाका त्याग कर दें तो फिर रोना नहीं
पड़ेगा ।
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