।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं. २०७६ शनिवार
गीताका अनासक्तियोग
        



जब कन्या विवाहके बाद ससुराल जाती है तो वह रोती है । माता-पितासे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर उसको दुःख होता है । पर वह ससुरालमें जाकर रहने लग जाती है तो रहते-रहते इतनी घुल-मिल जाती है कि अपने पीहरको भूल जाती है । जब वह दादी-परदादी बन जाती है और पोते-परपोतेकी स्त्री उद्दण्डता करती है, तब वह कहती है कि इस परायी जाई (पराये घरमें जन्मी) छोकरीने मेरा घर बिगाड़ दिया ! उसको याद ही नहीं रहता कि मैं भी परायी जाई हूँ ! इसको आसक्ति कहते हैं । उसने घरको अपना मान लिया कि मैं तो यहाँकी हूँ, मैं माँ हूँ और यह मेरा बेटा है, मैं दादी हूँ और यह मेरा पोता है, मैं परदादी हूँ और यह मेरा परपोता है आदि-आदि ये मेरे हैं–इसमें एक रस (सुख) मिलता है । यह रस ही भयंकर दुःख देनेवाला है । यह रस तो सदा रहेगा नहीं, पर दुःख दे जायगा । पक्षी उड़ जायगा, पर अण्डा दे जायगा ! आसक्तिपूर्वक अपने सुखके लिये जोड़ा गया सम्बन्ध सदा नहीं रहेगा, मिट जायगा । अगर सुख देनेके लिये सम्बन्ध जोड़ें तो सदाके लिये सुखी हो जायँगे । सेवा-समितिवाले किसी मेले-महोत्सवमें सेवा करनेके लिये जाते हैं तो लोगोंके बिछुड़नेपर उनको रोना नहीं पड़ता; क्योंकि वे दूसरोंको सुख देनेके लिये वहाँ गये हैं, सुख लेनेके लिये नहीं । परन्तु जिस कुटुम्बमें हम रहते हैं, उसमें दूसरोंसे सुख लेनेकी आशा रहती है तो उनके बिछुड़नेपर रोना पड़ता है ।

किसीका बेटा मर जाय तो बड़ा दुःख होता है, पर वास्तवमें बेटेके मरनेसे दुःख नहीं होता, प्रत्युत उसको अपना माननेसे दुःख होता है । प्रतिदिन संसारमें जो भी मरता है, बेटा ही मरता है; क्योंकि मरनेवाला किसी-न-किसीका बेटा है ही । पर ‘मेरा बेटा’ मान लिया तो अब उसके मरनेका दुःख होगा । अतः संसारमें अपनेपनका सम्बन्ध ही दुःख देनेवाला है । अगर केवल सेवाके लिये सम्बन्ध जोड़ा जाय तो दुःख नहीं होगा । इसलिये कुटुम्बमें सबको सेवा करने, सबको सुख पहुँचाने, सबको आराम देनेका ही सम्बन्ध रखना चाहिये । ऐसा करनेसे आसक्ति मिट जायगी ।

अगर पचीस वर्षका लड़का मर जाय तो बड़ा दुःख होता है । पर वही लड़का अगर उन्नीस-बीस वर्षकी अवस्थामें बीमार हो जाय तथा वैद्यलोग कह दें कि इसके जीनेकी सम्भावना नहीं है और बीमारी भोगते हुए पचीस वर्षकी अवस्थामें मर जाय तो उतना दुःख नहीं होगा । तात्पर्य यह हुआ कि सुखकी आशा, कामना और भोगमें ही दुःख है । अगर सुखकी आशा, कामना और भोग न करें तो दुःख हो ही नहीं सकता । सब-के-सब दुःख सुखकी आशा, कामना और भोगपर ही अवलम्बित हैं ।