जो
लेनेके उद्देश्यसे देता है, वह वास्तवमें लेता ही है, देता नहीं । जो ‘एक गुना
दान, सहस्रगुना पुण्य’ के भावसे एक रुपयेका दान करता है, उसका सम्बन्ध हजार
रुपयोंके साथ जुड़ जाता है ! अतः जो सुख लेनेके उद्देश्यसे स्त्रीको सुख देता है, बच्चोंका पालन-पोषण
करता है, बच्चोंका विवाह करता है, उसको परिणाममें
दुःख पाना पड़ता है । जो सुख लेनेके लिये किसीके साथ
सम्बन्ध नहीं जोड़ता, वह संसारमें बड़े मौजसे रहता है । वह जीता है तो आनन्दसे जीता है और मरता है तो आनन्दसे मरता
है । परन्तु लेनेकी इच्छासे सम्बन्ध जोड़नेवाला जीते हुए भी दुःख पाता है और
मरते हुए भी दुःख पाता है । दूसरा चाहे छोटा हो, चाहे बड़ा हो, चाहे समान
अवस्थावाला हो, सबको सुख पहुँचाना है । ऐसा करनेसे हमारा व्यवहार शुद्ध हो जायगा,
शान्ति मिलेगी, बिना चाहे आदर-सत्कार बढ़ जायगा । अतः आसक्तिके त्यागका उपाय है–सेवा करना,
सबको सुख पहुँचाना । किसीके साथ सम्बन्ध जोड़ना है
तो उसको सुख पहुँचानेके लिये, उसका हित करनेके लिये, उसका कल्याण करनेके लिये,
उसका आदर-सत्कार करनेके लिये, उसको आराम देनेके लिये ही सम्बन्ध जोड़ना है । लेनेके
लिये सम्बन्ध जोड़ना है ही नहीं । इससे आसक्ति मिट जायगी ।
एक राजा था ।
वह एक दिन शामके वक्त अपने महलकी छतपर धूम रहा था । साथमें पाँच-सात आदमी भी थे ।
महलके पीछे कुछ मकानोंके खण्डहर थे । उन खण्डहरोंमें कभी-कभी एक सन्त आकर ठहरा
करते थे । राजाने उन खण्डहरोंकी तरफ संकेत करते हुए अपने आदमियोंसे पूछा कि ‘यहाँ
एक सन्त आकर ठहरा करते थे न ?’ उन्होंने कहा कि ‘हाँ महाराज ! आया करते थे, पर कुछ
वर्षोंसे उनको यहाँ आते देखा नहीं ।’ राजाने कहा कि ‘वे बड़े विरक्त, त्यागी सन्त
थे । उनके दर्शनसे बड़ी शान्ति मिलती थी । वे मिलें तो उनसे कोई बात पूछें । उनका
पता लगाओ ।’ राजाके आदमियोंने उनका पता लगाया तो पता चला कि वे शरीर छोड़ गये । मनुष्यकी यह बड़ी भूल
होती है कि जब कोई मौजूद होता है, तब उससे लाभ लेते नहीं और जब वह मर जाता है, तब
रोते हैं । राजाने कहा कि ‘अहो ! हमसे बड़ी गलती हो गयी कि हम उनसे लाभ नहीं
ले सके ! अब उनका कोई शिष्य हो तो उसको ले आओ, हम उससे मिलेंगे ।’ राजपुरुषोंने
खोज की तो एक साधु मिले । उनसे पूछा कि ‘महाराज ! क्या आप उन सन्तको जानते हैं ?’
वे बोले कि ‘हाँ, जानता हूँ । वे बड़े ऊँचे महात्मा थे ।’ राजपुरुषोंने फिर पूछा कि
‘क्या आप उन सन्तके शिष्य हैं ?’ साधुने कहा कि ‘नहीं, वे किसीको शिष्य नहीं बनाते
थे । हाँ, मैं उनके साथ जरूर रहा हूँ ।’ राजाके पास यह समाचार पहुँचा तो राजाने
उनको ही लानेकी आज्ञा दी । राजाके आदमी उस साधुके पास गये और बोले कि ‘महाराज !
राजाने आपको बुलाया है, हमारे साथ चलिये ।’ वे बोले कि ‘भाई ! मैंने क्या अपराध
किया है ?’ कारण कि राजा प्रायः उसीको लानेकी आज्ञा देते हैं, जिसने कोई गलती की
हो । राजपुरुषोंने कहा कि ‘नहीं महाराज ! आपको तो वे सत्संगके लिये, पारमार्थिक
बातें पूछनेके लिये बुलाते हैं । आप हमारे साथ पधारें ।’
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