वे साधु
‘अच्छा’ कहकर उनके साथ चल दिये । रास्तेमें वे एक गलीमें जाकर बैठ गये ।
राजपुरुषोंने समझा कि वे लघुशंका करते होंगे । गलीमें एक कुतियाने बच्चे दे रखे थे ।
साधुने उनमेंसे एक पिल्लेको उठा लिया और अपनी चद्दरके भीतर छिपाकर राजपुरुषोंके
साथ चल पड़े ।
राजाओंके यहाँ
आसन (कुरसी) का बड़ा महत्त्व होता ही । किसको कौन-सा आसन दिया जाय, किसको कितना आदर
दिया जाय, किसको ऊँचा और किसको नीचा आसन दिया
जाय–इसका विशेष ध्यान रखा जाता है । राजाने साधुके बैठनेके लिये गलीचा बिछा
दिया और खुद भी उसपर बैठ गये, जिससे ऊँचे-नीचे आसनका कोई विचार न रहे । बाबाजीने
बैठते ही अपने दोनों पैर राजाके सामने फैला दिये । राजाने सोचा कि यह मुर्ख है,
सभ्यताको जानता नहीं ! कभी राजसभामें गया नहीं, इसलिये राजाओंके सामने कैसे बैठना
चाहिये–यह इसको आता नहीं ।
राजाने पूछ लिया–पैर फैलाये कबसे ?
बाबाजी
बोले–हाथ सिकोड़े तबसे । तात्पर्य है कि
कुछ लेनेकी इच्छा होती तो हम हाथ फैलाते और पैर सिकोड़ते, पर हमें लेना कुछ है ही
नहीं, इसलिये हाथ सिकोड़ लिये और पैर फैला दिये । ऐसा कहकर बाबाजीने हाथ-पैर ठीक कर
लिये । राजाने उत्तर सुनकर विचार किया कि ये मूर्ख नहीं हैं, प्रत्युत बड़े समझदार,
त्यागी और चेतानेवाले हैं । राजाने उन
सन्तकी चर्चा की तो साधुने कहा कि वे बड़े अच्छे सन्त थे, वैसे सन्त बहुत कम हुआ
करते हैं ।
राजाने पूछा–आप उनके साथ रहे हैं न ?
साधुने कहा–हाँ, मैं उनके
साथ रहा तो हूँ ।
राजाने पूछा–आपने उनसे कुछ लिया होगा ?
साधुने कहा–हमने लिया
नहीं राजन् !
राजा बोले–तो क्या आप रीते ही रह गये ?
साधुने कहा–नहीं, ऐसे सन्तके साथ रहनेवाला कभी रीता रह सकता ही नहीं । हमने लिया
तो नहीं, पर रह गया ।
राजाने पूछा–क्या रह गया ?
साधुने कहा–जैसे
डिबियामेंसे कस्तूरी निकालनेपर भी उसमें सुगन्ध रह जाती है, घीके बर्तनमेंसे घी
निकालनेपर भी उसमें चिकनाहट रह जाती है, ऐसे ही सन्तके साथ रहनेसे उनकी सुगन्ध,
चिकनाहट रह गयी ।
राजा बोले–महाराज ! वह सुगन्ध, चिकनाहट क्या
है–यह मेरेको बताइये ।
साधुने कहा–राजन् ! यह हम
साधुओंकी, फकीरोंकी बात है, राजाओंकी बात नहीं
। आप जानकार क्या करोगे ?
राजाने कहा–नहीं महाराज ! आप जरूर बताइये ।
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