।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण चतुर्थी, वि.सं. २०७६ मंगलवार
गीताका अनासक्तियोग
        



साधुने चद्दरके पीछे छिपाया पिल्ला बाहर निकाला और राजाके सामने कर दिया ।

राजाने कहा–हम समझें नहीं महाराज !

साधुने कहा–आप बुरा तो नहीं मानोगे ?

राजाने कहा–अरे, मैं तो पूछता ही हूँ, बुरा कैसे मानूँगा ? आप सच्‍ची बात कह दें ।

साधुने कहा–‘राजन् ! मेरेको आपमें और इस पिल्लेमें फरक नहीं दीखता; यह समता ही उन सन्तके संगकी सुगन्ध, चिकनाहट है ! यह पिल्ला बहुत साधारण चीज है और आप बहुत विशेष हैं–यह बात तो सच्‍ची है, पर मेरेको ऐसा नहीं दीखता । आपमें भी प्राण हैं और इसमें भी प्राण हैं । आपके भी श्वास चलते हैं और इसके भी श्वास चलते हैं । आपका भी शरीर पाँच भूतोंसे बना है और इसका शरीर भी पाँच भूतोंसे बना है । आप भी देखते हैं, यह भी देखता है । आप भी खाते-पीते हैं, यह भी खाता-पीता है । आपमें और इसमें फरक क्या है ? संसारके सभी प्राणियोंमें कोई-न-कोई विशेषता है ही । किसीमें कोई विशेषता है तो किसीमें कोई विशेषता है, टोटलमें सब बराबर हुए ! आप ऊँचे पदपर हैं और यह नीचा है–यह फरक तो तब होता है, जब मेरा स्वार्थका सम्बन्ध हो । मेरा किसीसे स्वार्थका सम्बन्ध है ही नहीं, न तो आपसे कुछ लेना है, न कुत्तेसे कुछ लेना है, फिर मेरे लिये आपमें और इसमें फरक क्या है ? आप बुरा न मानें । आपने बतानेका आग्रह किया, इसलिये साफ बात कह दी । मैं आपका तिरस्कार नहीं करता हूँ, प्रत्युत सत्कार करता हूँ, क्योंकि आप प्रजाके मालिक हैं ।’

तात्पर्य है कि जब हमें संसारसे कुछ लेना होता है, तब हमें कोई धनी और कोई दरिद्र दीखता है । धनी मिले या दरिद्र मिले, हमें उनसे कुछ लेना है ही नहीं, तो फिर दोनोंमें क्या फरक हुआ ? एक साधु थे । घरोंसे भिक्षा लेना और पाकर चले आना–यह उनका प्रतिदिनका नियम था । शहरसे भिक्षा लेते समय बीचमें बहुत भीड़ रहती है; अतः स्पर्शदोषसे बचनेके लिये वे वहीं बैठकर पा लेते थे । एक दिन भिक्षा पानेके बाद वे अपना पात्र माँजने लगे तो एक सेठने कहा कि आपका पात्र मैं माँज देता हूँ । साधुने कहा कि आपसे नहीं मँजवाना है तो वह सेठ बोला कि मेरा नौकर माँज देगा । साधुने कहा कि ‘मेरे लिये आपमें और नौकरमें फर्क क्या है ? आप माँजे या नौकर माँजे, फर्क क्या पड़ा ? फर्क तो तब पड़े, जब मैं आपको बड़ा आदमी समझूँ और नौकरको मामूली आदमी समझूँ । मेरे लिये जैसे आप आदरणीय हैं, ऐसे ही नौकर आदरणीय है और जैसे नौकर आदरणीय है, ऐसे ही आप आदरणीय है । नौकर है तो आपका है, मेरा नौकर है क्या ? उसको मैं तनख्वाह देता हूँ क्या ? मेरा सम्बन्ध तो आपके साथ और नौकरके साथ समान ही है । अन्तर तो तब हो, जब  मेरेको कुछ लेना हो, कोई राग-द्वेषपूर्वक सम्बन्ध जोड़ना हो !


तात्पर्य है कि संसारसे कुछ लेनेकी इच्छाका त्याग करनेसे आसक्ति मिट जाती है । अतः केवल देनेके लिये, सुख पहुँचानेके लिये ही संसारके साथ सम्बन्ध रखे–यह आसक्ति मिटानेका बड़ा सीधा सरल उपाय है । स्त्री, पुत्र, माता, पिता, भाई, भौजाई आदि सबको सुख पहुँचाना है, सबका हित करना है और उनसे लेना कुछ नहीं है । उनमें हमारा अपनापन पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा, बीचमें ही हमने अपना माना है । पर वह भी निरन्तर मिट रहा है । इसको छोड़नेकी जिम्मेवारी हमपर है; क्योंकि आसक्ति हमने ही पकड़ी है, यह भगवान्‌की अथवा किसी दूसरेकी दी हुई नहीं है । यह कर्मोंका फल भी नहीं है, प्रत्युत अपनी ही मूर्खताका फल है । अपनी मूर्खताका त्याग करना अपना कर्तव्य है ।