Apr
24
।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण पंचमी, वि.सं. २०७६ बुधवार
गीताका अनासक्तियोग
        



सांसारिक भोग और संग्रहकी आसक्तिके कारण परमात्मप्राप्तिके अनन्त आनन्दका अनुभव नहीं हो रहा है । इसलिये आसक्तिका त्याग करना है और परमात्माका प्रेम प्राप्त करना है । कारण कि हम स्वरूपसे परमात्माका अंश हैं; अतः हमारा खिंचाव परमात्माकी तरफ ही होना चाहिये, शरीर या संसारकी तरफ नहीं । हम एक शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानेंगे तो संसारमात्रके साथ सम्बन्ध जुड़ जायगा । जैसे पुरुष एक स्त्रीके साथ पति-पत्नीका सम्बन्ध जोड़ता है तो सास-ससुर, साला-साली आदि कइयोंके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और एक शरीरके साथ सम्बन्ध-विच्छेद करनेसे संसारमात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । तात्पर्य है कि लेनेकी इच्छासे संसारमात्रके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और लेनेकी इच्छा छोड़नेसे संसारमात्रके साथ सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होते ही परमात्माके साथ नित्य-सम्बन्ध (नित्ययोग) का अनुभव हो जाता है । यह अनासक्ति-योग है ।

प्रश्न–हम जिसकी सेवा करेंगे, उसमें क्या आसक्ति नहीं हो जायगी ?

उत्तर–नहीं होगी । एक आदमी प्याऊपर बैठकर पानी पिलाता है तो उसका अनेक व्यक्तियोंके साथ सम्बन्ध होता है । कई लोग आते हैं और पानी पीकर चले जाते हैं । परन्तु प्याऊपर बैठे आदमीकी उनमें आसक्ति नहीं होती; क्योंकि पानी पिलानेके सिवाय और कोई सम्बन्ध है ही नहीं । आसक्ति तो लेनेका सम्बन्ध होनेपर ही होती है ।

एक आदमी जाड़ेके समय पचास कम्बल वितरित कर देता है तो उसकी महिमा होती है, पर एक व्यापारी एक हजार कम्बल बिक्री कर देता है तो उसकी महिमा नहीं होती । व्यापारीके द्वारा बिक्री किये गये कम्बलोंसे लोगोंका जाड़ा भी दूर होता है, फिर भी उसको पुण्य नहीं होता; क्योंकि उसने पैसे कमानेके लिये ही कम्बल दिये हैं । लेनेके लिये देना वास्तवमें देना नहीं है, प्रत्युत लेना ही है । अतः आसक्ति वहीं होती है, जहाँ लेनेके लिये देना होता है अथवा लेनेके लिये लेना होता है अर्थात् लेना मुख्य होता है । अतः देनेके लिये ही लेना होना चाहिये और देनेके लिये ही देना होना चाहिये । जैसे, कोई ब्राह्मण श्राद्ध आदिमें केवल यजमानके हितके लिये ही लेता है तो वह देनेके लिये ही लेता है ।