Apr
25
पहले
उद्देश्य बनता है, फिर क्रिया होती है । हमारा उद्देश्य आसक्ति-त्यागका होना
चाहिये । हमें आसक्ति-त्यागके लिये ही लेना है और आसक्ति त्यागके लिये ही देना है
। किसीसे कोई आशा नहीं रखनी है । स्त्री रोटी बनाकर दें तो खा लें,
पर वह रोजाना रोटी बनाकर दे–यह आशा भी न रखें । आशा ही महान् दुःख देनेवाली है–‘आशा ही परमं दुःखं
नैराश्यं परमं सुखम्’ (श्रीमद्भागवत ११/८/४४) ।
दूसरोंकी
सेवा अपनी शक्तिके अनुसार करनी है । हमारे पास जितना समय है, जितनी समझ
है, जितनी सामर्थ्य है, जितनी सामग्री है, उतनेसे ही दूसरोंकी सेवा करनी है । इससे
अधिककी हमारेपर जिम्मेवारी ही नहीं है, और दूसरे हमारेसे आशा भी नहीं रखते । मालपर
जगात और इन्कमपर टैक्स लगता है । माल नहीं तो जगात
किस बातकी ? इन्कम नहीं तो टैक्स किस बातका ?
प्रश्न–क्या सत्संग
आदिमें आसक्ति होना भी दोष है ?
उत्तर–नहीं; क्योंकि
यह आसक्ति नहीं है, प्रत्युत प्रेम है । कामना नहीं है, प्रत्युत आवश्यकता है ।
परन्तु गाना-बजाना बढ़िया हो, राग-रागिनी बढ़िया हो, खूब
लच्छेदार व्याख्यान हो, जो श्रोताओंको रुला दे अथवा हँसा दे–यह श्रोताकी आसक्ति है ।
लोग हमें वक्ता समझें, हमारा मान-आदर करें–यह वक्ताकी आसक्ति है । मुक्तिके लिये,
तत्त्वबोधके लिये, भगवत्प्रेमके लिये सत्संग आदिमें रुचि तो वास्तवमें हमारी
आवश्यकता (भूख) है, जो दोषी नहीं है ।
सत्संग करना
आसक्ति मिटानेके लिये है । जैसे काँटेंसे काँटा निकलता है, ऐसे ही सत्संगकी आसक्ति
(रुचि) से संसारकी आसक्ति मिटती है ।
संगः
सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्त्याक्तुं न शक्यते ।
स
सद्भिः सह कर्तव्यः सतां संगो हि भेजषम् ॥
(मार्कण्डेय॰
३७/२३)
‘संग (आसक्ति) का सर्वथा त्याग करना चाहिये । परन्तु यदि उसका त्याग न किया
जा सके तो सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये; क्योंकि सत्पुरुषोंका संग ही उस संग
(आसक्ति) को मिटानेकी औषधि है ।’
प्रश्न–आवश्यकता और कामनामें क्या फर्क है
?
उत्तर–आवश्यकता
अविनाशीकी होती है और कामना नाशवान्की होती है । जैसे सड़कमें
कोई गड्ढा पड़ जाय तो उसपर मोटर लचकती है; अतः उस गड्ढेको मिट्टी, पत्थर आदि किसी
चीजसे भरकर सम कर दें तो मोटर नहीं लचकेगी, ऐसे ही शरीरकी भूख लगनेपर उसकी पूर्ति
कर देना आवश्यकता है । भूख मिटानेके लिये चाहे साग-पत्ती खा लें, चाहे हलवा-पूरी
खा लें, जिससे पेट भर जाय । परन्तु अमुक चीज चाहिये,
मिठाई चाहिये, खटाई चाहिये, चटनी चाहिये–यह कामना है । आवश्यकताकी पूर्ति होती है
और कामनाकी निवृत्ति होती है । कामनाकी पूर्ति किसीकी भी कभी हुई नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं ।
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