Apr
26
प्रश्न–कभी-कभी दूसरेको सिखानेके लिये सेवा
लेनी पड़ती है, क्या यह ठीक है ?
उत्तर–बालक
आदिको सिखानेके लिये सेवा लेना वास्तवमें सेवा करना ही है । लेनेकी
क्रिया तो दीखती है, पर वास्तवमें लिया नहीं है, प्रत्युत शिक्षा दी है ।
प्रश्न–सभीके शरीर अनित्य हैं, फिर उनकी
सेवा क्यों की जाय ?
उत्तर–अनित्यकी
सेवा करनेसे नित्यकी प्राप्ति होती है । कारण कि अनित्यकी सेवा करनेसे अनित्यकी
आसक्तिका त्याग हो जाता है और आसक्तिका त्याग होनेपर नित्यकी
प्राप्ति हो जाती है । वास्तवमें सेवा केवल अनित्य शरीरकी नहीं होती, प्रत्युत
शरीरी (शरीरवाले) की होती है । व्यवहारमें जड चीज जडता (शरीर) तक ही पहुँचती है,
चेतनतक नहीं; परन्तु सेवा लेनेवाला अपनेको शरीर मानता
है, इसलिये वह सेवा चेतनकी होती है–‘जिमि अबिबेकी
पुरुष सरीरहि’ (मानस, अयोध्या॰ १४२/१) । तात्पर्य
है कि हम शरीरको अपना मानते हैं, इसलिये
शरीरतक पहुँचनेवाली चीज अपनेतक पहुँचती है ।
भक्त तो सबको
भगवान्का ही स्वरूप मानकर उनकी सेवा करता है–‘स्वकर्मणा
तमभ्यर्च्य’ (गीता १८/४६), ‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत’ (मानस,
किष्किन्धाकाण्ड ४) । भगवान्में आत्मीयता होनेसे उसकी
संसारमें समता हो जाती है–
तुलसी
ममता राम सों समता सब संसार ।
राग
न रोष न दोष दुख दस भए भव पार ॥
(दोहावली ९४)
संसारमें समता होनेसे आसक्ति मिट जाती है । यही अनासक्तियोग है
।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
–‘जित देखूँ तित तूँ ’ पुस्तकसे
|