एक मनुष्य ऐसा है, जिसका सुख छीन गया है; दूसर ऐसा है, जिसको आरम्भसे वह सुख
नहीं मिला । वर्तमान समयमें दोनोंकी एक-सी अवस्था हैं; किन्तु पहलेको जैसा दुःख
होता है, वैसा दूसरेको नहीं । इसका कारण यह है कि वह वस्तु उसके पास पहलेसे नहीं है; जिसके लिये वह दुःख करता
है । इसलिये पदार्थ रहें, तब भी दुःख होता है, न
रहें, तब भी दुःख होता है । इसीसे भगवान् इस
संसारको असुख, नश्वर और दुःखालय कहते हैं । अतः इस मानव-शरीरका फल भगवद्भजन
ही है, विषय-सेवन नहीं–
एहि तन कर फल बिषय न भाई ।
स्वर्गऊ स्वल्प अंत
दुखदाई ॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन
देहीं ।
पलटि सुधा ते सठ बिष
लेहीं ॥
ताहि कबहुँ भल कहइ
न कोई ।
गुंजा ग्रहइ परस मनि
खोई ॥
देह धरे कर यह फलु
भाई ।
भजिअ राम सब काम बिहाई ॥
(रामायण )
इसीलिये भगवान् कहते हैं–इस शरीरको
प्राप्त होकर मेरा भजन कर । यहाँतक भगवान्ने भक्तिके अधिकारीयोंका वर्णन कर
चेतावनी देते हुए अर्जुनको भगवद्भक्ति करनेकी आज्ञा दी । तात्पर्य है कि भगवान्ने
भक्तिकी सब युक्तियोंसे पुष्टि की तथा उसे परमावश्यक बतलाते हुए भक्ति करनेका आदेश
दिया–‘मां भजस्व’ (९/३३) ।
अब यह जाननेकी आवश्यकता है कि भक्तिका क्या स्वरूप है ।
इसके लिये भगवान् स्वयं कहते हैं–
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानां मत्परायणः ॥
(गीता ९/३४)
अर्थात् ‘मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन,
मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर । इस प्रकार आत्माको मुझमें नियुक्त करके
मेरे परायण होकर तु मुझको ही प्राप्त होगा ।’
इस श्लोकमें भगवान्ने भक्तिकी चार बातें बतायी हैं–
(१)‘मन्मना भव’–मुझमें मन लगानेवाला हो ।
(२)‘मद्भक्तो भव’–मेरा भक्त बन जा ।
(३)‘मद्याजी भव’–मेरा पूजन करनेवाला हो ।
(४)‘मां नमस्कुरु’–मुझे नमस्कार कर ।
इसमें ‘मन्मना भव’ का
अनुष्ठान करनेके लिये भगवान्के स्वरूपका नामसहित चिन्तन करनेकी चेष्टा करनी
चाहिये । यह
सब शास्त्रोंका सार है । सन्त-महात्मा भी इसीपर जोर देते हैं । कहा भी है–
आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेव
सुनिश्पन्नं ध्येयो नारायणः
सदा ॥
‘सब शास्त्रोंका आलोडन तथा बार-बार विचार
करनेसे यही बात सिद्ध हुई है कि सदा भगवान्का ध्यान करना चाहिये ।’
भगवान्के चिन्तनमात्रसे भगवत्प्राप्ति हो जाती है । आठवें
अध्यायके चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने निरन्तर अनन्य-चिन्तन करनेवालेके लिये ही
अपने-आपको सुलभ बताया है–
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
(गीता ८/१४)
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