।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं. २०७६ मंगलवार
  गीतामें भक्ति और उसके अधिकारी
        

एक मनुष्य ऐसा है, जिसका सुख छीन गया है; दूसर ऐसा है, जिसको आरम्भसे वह सुख नहीं मिला । वर्तमान समयमें दोनोंकी एक-सी अवस्था हैं; किन्तु पहलेको जैसा दुःख होता है, वैसा दूसरेको नहीं । इसका कारण यह है कि वह वस्तु उसके पास पहलेसे नहीं है; जिसके लिये वह दुःख करता है । इसलिये पदार्थ रहें, तब भी दुःख होता है, न रहें, तब भी दुःख होता है । इसीसे भगवान्‌ इस संसारको असुख, नश्वर और दुःखालय कहते हैं । अतः इस मानव-शरीरका फल भगवद्भजन ही है, विषय-सेवन नहीं–

एहि तन कर फल बिषय न भाई ।
स्वर्गऊ स्वल्प   अंत     दुखदाई ॥
नर तनु पाइ   बिषयँ   मन देहीं ।
पलटि सुधा   ते सठ  बिष लेहीं ॥
ताहि कबहुँ   भल कहइ न कोई ।
गुंजा   ग्रहइ   परस   मनि खोई ॥
देह धरे   कर   यह   फलु भाई ।
भजिअ राम सब काम बिहाई ॥
                                                              (रामायण )

इसीलिये भगवान्‌ कहते हैं–इस शरीरको प्राप्त होकर मेरा भजन कर । यहाँतक भगवान्‌ने भक्तिके अधिकारीयोंका वर्णन कर चेतावनी देते हुए अर्जुनको भगवद्भक्ति करनेकी आज्ञा दी । तात्पर्य है कि भगवान्‌ने भक्तिकी सब युक्तियोंसे पुष्टि की तथा उसे परमावश्यक बतलाते हुए भक्ति करनेका आदेश दिया–‘मां भजस्व’ (९/३३)

अब यह जाननेकी आवश्यकता है कि भक्तिका क्या स्वरूप है । इसके लिये भगवान्‌ स्वयं कहते हैं–

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानां मत्परायणः ॥
                                                   (गीता ९/३४)

अर्थात् ‘मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर । इस प्रकार आत्माको मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तु मुझको ही प्राप्त होगा ।’

इस श्लोकमें भगवान्‌ने भक्तिकी चार बातें बतायी हैं–

(१)‘मन्मना भव’–मुझमें मन लगानेवाला हो ।
(२)‘मद्भक्तो भव’–मेरा भक्त बन जा ।
(३)‘मद्याजी भव’–मेरा पूजन करनेवाला हो ।
(४)‘मां नमस्कुरु’–मुझे नमस्कार कर ।

इसमें ‘मन्मना भव’ का अनुष्ठान करनेके लिये भगवान्‌के स्वरूपका नामसहित चिन्तन करनेकी चेष्टा करनी चाहिये । यह सब शास्त्रोंका सार है । सन्त-महात्मा भी इसीपर जोर देते हैं । कहा भी है–

आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेव  सुनिश्पन्नं   ध्येयो  नारायणः  सदा ॥

‘सब शास्त्रोंका आलोडन तथा बार-बार विचार करनेसे यही बात सिद्ध हुई है कि सदा भगवान्‌का ध्यान करना चाहिये ।’

भगवान्‌के चिन्तनमात्रसे भगवत्प्राप्ति हो जाती है । आठवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें भगवान्‌ने निरन्तर अनन्य-चिन्तन करनेवालेके लिये ही अपने-आपको सुलभ बताया है–

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥

                                                  (गीता ८/१४)