भगवान्ने भक्तिके
अधिकारी बतलाकर ३३वेंके उत्तरार्द्धमें
कहा है–
‘अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥’
अर्थात् ‘नाशवान् एवं सुखरहित
मानव-शरीरको प्राप्त करके मेरा भजन कर ।’ इसको अनित्य तथा क्षणभंगुर इसलिये
कहा कि इसका कोई भरोसा नहीं है ! पता नहीं कब नष्ट हो जाय । इसलिये भगवान् चेतावनी देते हैं कि इस शरीरके रहते-रहते मुझे प्राप्त
कर लेना चाहिये । भागवतमें भी कहा है–
लब्धवा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते
मानुष्यमदर्थमनित्यमपीह धीरः ।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-
न्निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात् ॥
(११/९/२९)
अर्थात् ‘बहुत-से जन्मोंके अन्तमें बहुत-से प्रयोजन सिद्ध करनेवाले इस अत्यन्त
दुर्लभ किन्तु अनित्य मानव-शरीरको पाकर जबतक मृत्यु न आये, उससे पहले
जल्दी-से-जल्दी आत्म-कल्याणके लिये यत्न करना चाहिये; क्योंकि विषय तो निश्चय ही
सर्वत्र मिल सकते हैं, परन्तु भगवान् नहीं ।’ गीताके आठवें अध्यायमें तो इसे भगवान् ‘दुःखालयमशाश्वतम्’ कहते हैं, फिर दुःखालयमें सुख कहाँ ? जिस
प्रकार पुस्तकालयमें औषधि और औषधालयमें कपड़े नहीं मिल सकते, ठीक उसी प्रकार इस
दुःखमय संसारमें सुख नहीं मिल सकता । सुख है ही नहीं ।
मनुष्यको जबतक किसी बातकी उत्कट
इच्छा नहीं होती, तबतक किसी पदार्थामें ऐसी शक्ति नहीं जो उसे सुख दे सके । इसलिये
पदार्थोंके सुखके लिये पदार्थविषयक उत्कट इच्छा और इच्छाके लिये अभावका अनुभव परम
आवश्यक है और अभावकी अनुभूतिमें सुखका नाम-निशान नहीं, दुःख-ही-दुःख है । एक ही अवस्थामें दो पुरुष एक ही साथ
जा रहे हैं । दोनोंकी
वेष-भूषा एक ही है । दोनोंके पास जूता नहीं, छाता नहीं । दोनोंके पास फटे कपड़े हैं
। दोनों एक-से हैं । पर उनमेंसे एक विरक्त है, एक अभावग्रस्त है । विरक्त पुरुषके
भीतर दुःखका नाम नहीं है और अभावग्रस्त पुरुषके पास सुखका नाम-निशान नहीं है, वह
वस्तुओंके अभावकी अनुभूतिसे निरन्तर व्यथित रहता है । उसीको ही क्षणभंगुर पदार्थ
क्षणिक सुख दे सकते हैं, विरक्तको नहीं; क्योंकि विरक्तको पदार्थोंका सर्वथा अभाव
होनेपर भी अभावकी अनुभूति नहीं है । अर्थात् विरक्त किसी वस्तुकी आवश्यकता ही नहीं
समझता, ऐसी स्थितिमें किसी पदार्थोंमें ऐसी शक्ति नहीं है जो उसे सुख दे सके ।
तात्पर्य यह कि अभावकी अनुभूति न होनेपर विषय सुख नहीं
दे सकेगा । जिसे रुपयेकी चाहना नहीं, उसे रुपया सुख नहीं दे सकता । जिसे
स्त्रीकी इच्छा नहीं, उसे स्त्री सुख नहीं दे सकती । सुख लेनेवालेको अपने लिये
अभावकी अनुभूति आवश्यक है । इससे सिद्ध हुआ कि
पदार्थोंकी अनुपस्थिमें भी पदार्थ दुःख देते हैं । मिलनेपर उसके नाशकी शंका हरदम
बनी रहती है । न्यूनता खटकती है, वही पदार्थ दूसरोंके पास अधिक मात्रामें अपनी
अपेक्षा सुन्दर देखकर जलन होती है । पदार्थ नष्ट हो जानेपर भी दुःख ही देते हैं ।
लड़केकी मृत्यु हो जानेपर उसकी स्मृति किस प्रकार कलेजेमें कसक पैदा करती है, यह
अनुभवी पुरुषोंसे छिपा नहीं है । मनुष्य उसके वियोगमें जो रोता-कलपता है, उस
दुःखकी क्या बात कही जाय । सांसारिक सुख भी दुःखके ही कारण हैं ।
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