।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ अमावस्या, वि.सं. २०७६ सोमवार
                   सोमवती अमावस्या
  गीतामें भक्ति और उसके अधिकारी
        

भगवान्‌ने भक्तिके अधिकारी बतलाकर ३३वेंके  उत्तरार्द्धमें कहा है–

‘अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥’

अर्थात् ‘नाशवान् एवं सुखरहित मानव-शरीरको प्राप्त करके मेरा भजन कर ।’ इसको अनित्य तथा क्षणभंगुर इसलिये कहा कि इसका कोई भरोसा नहीं है ! पता नहीं कब नष्ट हो जाय । इसलिये भगवान्‌ चेतावनी देते हैं कि इस शरीरके रहते-रहते मुझे प्राप्त कर लेना चाहिये । भागवतमें भी कहा है–

                      लब्धवा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते
                        मानुष्यमदर्थमनित्यमपीह धीरः ।
                     तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-
                     न्निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात् ॥
                                                       (११/९/२९)

अर्थात् ‘बहुत-से जन्मोंके अन्तमें बहुत-से प्रयोजन सिद्ध करनेवाले इस अत्यन्त दुर्लभ किन्तु अनित्य मानव-शरीरको पाकर जबतक मृत्यु न आये, उससे पहले जल्दी-से-जल्दी आत्म-कल्याणके लिये यत्‍न करना चाहिये; क्योंकि विषय तो निश्चय ही सर्वत्र मिल सकते हैं, परन्तु भगवान्‌ नहीं ।’ गीताके आठवें अध्यायमें तो इसे भगवान्‌ ‘दुःखालयमशाश्वतम्’ कहते हैं, फिर दुःखालयमें सुख कहाँ ? जिस प्रकार पुस्तकालयमें औषधि और औषधालयमें कपड़े नहीं मिल सकते, ठीक उसी प्रकार इस दुःखमय संसारमें सुख नहीं मिल सकता । सुख है ही नहीं ।


मनुष्यको जबतक किसी बातकी उत्कट इच्छा नहीं होती, तबतक किसी पदार्थामें ऐसी शक्ति नहीं जो उसे सुख दे सके । इसलिये पदार्थोंके सुखके लिये पदार्थविषयक उत्कट इच्छा और इच्छाके लिये अभावका अनुभव परम आवश्यक है और अभावकी अनुभूतिमें सुखका नाम-निशान नहीं, दुःख-ही-दुःख है । एक ही अवस्थामें दो पुरुष एक ही साथ जा रहे हैं । दोनोंकी वेष-भूषा एक ही है । दोनोंके पास जूता नहीं, छाता नहीं । दोनोंके पास फटे कपड़े हैं । दोनों एक-से हैं । पर उनमेंसे एक विरक्त है, एक अभावग्रस्त है । विरक्त पुरुषके भीतर दुःखका नाम नहीं है और अभावग्रस्त पुरुषके पास सुखका नाम-निशान नहीं है, वह वस्तुओंके अभावकी अनुभूतिसे निरन्तर व्यथित रहता है । उसीको ही क्षणभंगुर पदार्थ क्षणिक सुख दे सकते हैं, विरक्तको नहीं; क्योंकि विरक्तको पदार्थोंका सर्वथा अभाव होनेपर भी अभावकी अनुभूति नहीं है । अर्थात् विरक्त किसी वस्तुकी आवश्यकता ही नहीं समझता, ऐसी स्थितिमें किसी पदार्थोंमें ऐसी शक्ति नहीं है जो उसे सुख दे सके । तात्पर्य यह कि अभावकी अनुभूति न होनेपर विषय सुख नहीं दे सकेगा । जिसे रुपयेकी चाहना नहीं, उसे रुपया सुख नहीं दे सकता । जिसे स्त्रीकी इच्छा नहीं, उसे स्त्री सुख नहीं दे सकती । सुख लेनेवालेको अपने लिये अभावकी अनुभूति आवश्यक है । इससे सिद्ध हुआ कि पदार्थोंकी अनुपस्थिमें भी पदार्थ दुःख देते हैं । मिलनेपर उसके नाशकी शंका हरदम बनी रहती है । न्यूनता खटकती है, वही पदार्थ दूसरोंके पास अधिक मात्रामें अपनी अपेक्षा सुन्दर देखकर जलन होती है । पदार्थ नष्ट हो जानेपर भी दुःख ही देते हैं । लड़केकी मृत्यु हो जानेपर उसकी स्मृति किस प्रकार कलेजेमें कसक पैदा करती है, यह अनुभवी पुरुषोंसे छिपा नहीं है । मनुष्य उसके वियोगमें जो रोता-कलपता है, उस दुःखकी क्या बात कही जाय । सांसारिक सुख भी दुःखके ही कारण हैं ।