।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं. २०७६ रविवार
  गीतामें भक्ति और उसके अधिकारी
        

‘येऽपि स्युः पापयोनयः’ में ‘स्युः’ क्रियाका साक्षात् सम्बन्ध ‘पापयोनयः’ से ही है । ‘स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः’–इसमें ‘तथा’ शब्द स्त्री, वैश्य और शूद्रको ‘पापयोनयः’ से अलग कर रहा है । इन सबका अन्वय एक साथ ‘यान्ति’ क्रियामें होता है–‘तेऽपि यान्ति परां गतिम्’ वे भी परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं । यद्यपि स्त्रियाँ भी सम्पूर्ण मन्त्रों और वेदोंकी अधिकारिणी नहीं हैं, तथापि भगवान्‌की प्राप्तिमें उनका भी अधिकार है ही–

नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ।
                                              (नारदभक्ति-सूत्र ७२)

‘भक्तोंमें जाति, विद्या, रूप, कुल, धन और क्रियादिसे होनेवाला भेद नहीं है ।’

शबरीमें स्त्रीत्व होनेपर भी शूद्रत्व और पापयोनित्व भी है । वह कहती है–

अधम  ते  अधम  अति  नारी ।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥

अधम अर्थात् ब्राह्मणकी अपेक्षा नीचा क्षत्रिय, उससे अधम वैश्य, उससे अधम शूद्र और उससे अति अधम शबर जाति तथा शबर जातिकी स्त्रियोंमें फिर मन्दमति मैं । शबरीकी ऐसी अभिमानशून्य वाणी सुनकर श्रीरघुनाथजी कहते हैं–

                      जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
                         धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
                   भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
                       बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥
                कह रघुपति सुनु भामिनि बाता ।
                     मानउँ एक भगति कर नाता ॥

भगवान्‌ तो केवल भक्तिका नाता मानते हैं ।

‘भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणैर्भक्तिप्रियो माधवः ।’

भगवान्‌ तो केवल भक्तिसे सन्तुष्ट होते हैं, गुणोंसे नहीं । वे तो भावग्राही हैं । भगवान्‌के आगे पण्डिताईका जोर नहीं चलता–

मन्दो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे ।
उभयोश्च  फलं तुल्यं  भावग्राही  जनार्दनः ॥

किस भावसे कौन क्या कर रहा है, इसे भगवान्‌ जानते हैं । जो कोई प्रेमसे भगवान्‌की ओर दौड़ता है, उसकी ओर भगवान्‌ भी दौड़ पड़ते हैं ।

यहाँतक भगवान्‌ने आचरणों और जातिसे नीचके उद्धारकी बात बतायी तथा मध्य श्रेणीके स्त्री, वैश्य और शूद्रोंकी सद्गातिका वर्णन किया । अब भगवान्‌ यह बता रहे हैं कि जब पापयोनिवाले एवं स्त्री, वैश्य और शूद्र भी भक्तिसे परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं, तब जो आचरण और जाति दोनोंसे ही पवित्र हैं, उनका भक्तिसे उद्धार होना कौन बड़ी बात है ?

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अन्तियमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥
                                                     (गीता ९/३३)

इसमें ‘कैमुतिक’ न्याय है । अर्थात् जब स्त्री, वैश्य और शूद्र तथा दुराचारी और पतित जातिवालोंका भी उद्धार हो जाता है, तब पवित्र आचरणवाले ब्राह्मण और क्षत्रिय यदि भगवान्‌के भक्त हों तो उनके उद्धारके विषयमें तो कहना ही क्या है । यदि कोई जातिसे ब्राह्मण और क्षत्रिय हों, पवित्र आचरणवाले भी हों, परन्तु भक्त न हों, तो उनके उद्धारकी गारंटी भगवान्‌ नहीं लेते । इस श्लोकमें भगवान्‌ने आचरण और जाति दोनोंसे ही उत्तम पुरुषोंको भक्तिका अधिकारी बतलाया है; क्योंकि पहले कहा है कि जो आचरण अथवा जाति दोनोंसे ही नीच हों, वे भी मेरे भक्त बन सकते हैं तथा जो दोनोंसे ऊँचे हों, उनकी तो बात ही क्या है । इस प्रकरणमें भक्तिके सात अधिकारी बताये गये हैं । इनमें कोई कम नहीं है ।


(१) आचरणोंसे नीच, (२) जातिसे नीच, (३) स्त्री, (४) वैश्य, (५) शूद्र, (६) पवित्र ब्राह्मण और (७) राजर्षि–इन सात अधिकारीयोंके ही अन्तर्गत सभी मनुष्य आ जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि भगवान्‌की भक्तिके सब अधिकारी हैं ।