।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण द्वितीया, वि.सं. २०७६ शनिवार
                शरणागति
        

सत्संगके द्वारा जिन-जिन बातोंको आपने ठीक समझ लिया, उन बातोंमेंसे अपने उद्धारकी सुगम-से-सुगम जो बात मालूम दे, उसको धारण कर लो । अपनी दृष्टिमें जो सुगम-से-सुगम उपाय अपने उद्धारका दीखे, उसे जीवनमें उतारो । सुगम-से-सुगम बातोंको धारण करनेसे जो बातें आपको कठिन प्रतीत होती हैं, वे भी सुगम हो जायँगी । जो बातें अभी समझमें नहीं आतीं, वे भी समझमें आने लग जायँगी । साधनामें सबसे सुगम है‒भगवान्‌के नामका जप । बस, इसे अभीसे प्रारम्भ कर दीजिये ।

चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ ।
कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ॥

चारों ही युगोंमें और चारों ही वेदोंमें नामका बड़ा भारी प्रभाव है । कलियुगमें तो इसकी विशेष महिमा है । इस कालमें तो इसके समान कल्याणका दूसरा उपाय है ही नहीं । भगवन्नामकी महिमा सब युगोंमें और सब शास्त्रोंमें बहुत कही गयी है, परन्तु कलियुगमें विशेष महिमा है, क्योंकि कलियुगमें कोई और ऐसा सहारा नहीं है । जैसे उपयुक्त समयपर बरसी हुई वर्षा ही अन्न उत्पन्न करनेमें समर्थ होती है, अन्यथा नहीं । ज्येष्ठ-आषाढ़में वर्षा होती है तब बाजरा पैदा होता है । पौषके महीनेमें वर्षा होनेसे बाजरा नहीं होता । ऐसे ही भगवन्नाम लेनेकी ऋतु है अभी । कलियुगमें नाम-महिमा विशेष है । दूसरे उपाय कलियुगमें इतने जल्दी नहीं सधते हैं । अल्पबुद्धिवाले कलियुगी जीवोंके लिये भगवान्‌ने अपनी प्राप्तिका नाम-जपरूपी सुगम साधन बता दिया । अनेक साधनोंमें जो तत्त्व मिलता है, वह केवल नाम-जपसे मिल जायगा । कितनी सरल, कितनी सीधी बात है । अतएव नाम-जपमें लग जाओ । हरदम चलते-फिरते, उठते-बैठते नाम-जप करो । मनसे यही कहते रहो‒ ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं । हे नाथ ! आपके चरणोंमें प्रेम हो जाय । बस, आप मेरेको स्वीकार कर लो, मैं आपको भूलूँ नहीं ।’

भगवान्‌ किसी भी जीवका कभी भी त्याग नहीं करते । पापी-से-पापी, दुष्ट-से-दुष्ट, नीच-से-नीच, मूर्ख-से-मूर्ख; वर्णसे, आश्रमसे सब तरहसे गया बीता है, परन्तु जब वह ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ’‒ऐसा मानकर भगवान्‌की शरण हो जाता है, तो भगवान्‌ उसका त्याग नहीं करते । उन्होंने कभी किसीका त्याग नहीं किया । शरणमें आनेवालोंको भगवान्‌ शरणमें लेते हैं, यह बात तो सुनी होगी; परन्तु भगवान्‌ने किसीका त्याग कर दिया‒ऐसी बात आपने कभी सुनी नहीं होगी; क्योंकि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता । वे परम दयालु हैं, इसलिये उनके होकर उनका नाम जपो । एक भक्त भगवान्‌से प्रार्थना करता है‒

                  मज्जन्मनः फलमिदं मधुकैटभारे
                 मत्प्रार्थनीयमदनुग्रह      एष       एव ।
                 त्वद्‌भृत्यभृत्यपरिचारकभृत्यभृत्य
                भृत्यस्य भृत्य इति मां स्मर लोकनाथ ॥

अभिप्राय है कि मेरे जन्मका फल यही है, मेरी प्रार्थनाका विषय यही है, मुझपर आपकी कृपा भी यही मानता हूँ कि आपके दास, उनके दास, दासोंके दास उनके नौकर, ऐसे आपकी परम्परामें कोई कितना ही दूर क्यों न हो, उसका दास मुझे मान लीजिये । भक्त तो यही कहता है कि यों तो मैं साक्षात् आपका हूँ ही, पर केवल परम्परासे भी आप मान लें कि ‘तू मेरा है’ बस, मैं निहाल हो गया । पर भगवान्‌ तो बिना कहे ही ऐसा मानते हैं और साक्षात् जीवमात्रको भगवान्‌ अपना ही मानते हैं । उनमेंसे जो भगवान्‌के सम्मुख हो जाता है, वह उन्हें विशेष प्यारा है ।

समोऽहं सर्वभूतेषु      न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥
                                                      (गीता ९/२९)


इसलिये प्रभुके सम्मुख हो जाओ ।