निन्दा इसलिये बुरी लगती है कि हम प्रशंसा चाहते हैं । हम
प्रशंसा चाहते हैं तो हम वास्तवमें प्रशंसाके योग्य नहीं हैं; क्योंकि जो
प्रशंसाके योग्य होता है, उसमें प्रशंसाकी
चाहना नहीं रहती ।
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दूसरोंसे अच्छा कहलानेकी इच्छा बहुत बड़ी निर्बलता है ।
इसलिये अच्छे बनो, अच्छे कहलाओ मत ।
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सांसारिक सुखकी इच्छाका त्याग कभी-न-कभी तो करना ही पड़ेगा
तो फिर देरी क्यों ?
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जहाँतक बने, दूसरोंकी आशापूर्तिका उद्योग करो, पर दूसरोंसे
आशा मत रखो ।
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विचार करो, जिससे आप सुख चाहते हैं,
क्या वह सर्वथा सुखी है ? क्या वह दुःखी नहीं है ? दुःखी व्यक्ति आपको सुखी कैसे
बना देगा ?
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कामना छूटनेसे जो सुख होता है, वह सुख कामनाकी पूर्तिसे कभी
नहीं होता ।
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परमात्माकी उत्कट अभिलाषा चाहते हो तो संसारकी अभिलाषाको
छोड़ो ।
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जो बदलनेवाले (संसार) की इच्छा करता है, उससे सुख लेता है,
वह भी बदलता रहता है अर्थात् अनेक योनियोंमें जन्मता-मरता रहता है ।
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जिसको हम सदाके लिये अपने पास नहीं रख
सकते, उसकी इच्छा करनेसे और उसको पानेसे भी क्या लाभ ?
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कामनाके कारण ही कमी है । कामनासे रहित होनेपर कोई कमी बाकी
नहीं रहेगी ।
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कामनाका सर्वथा त्याग कर दें तो आवश्यक वस्तुएँ स्वतः
प्राप्त होंगी; क्योंकि वस्तुएँ निष्काम पुरुषके पास आनेके लिये लालायित रहती हैं
।
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जो अपने सुखके लिये वस्तुओंकी इच्छा करता है, उसको
वस्तुओंके अभावका दुःख भोगना ही पड़ेगा ।
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‒‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे
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