नाशवान्की चाहना छोड़नेसे अविनाशी तत्त्वकी प्राप्ति होती
है ।
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ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये‒इसीमें सब दुःख भरे
हुए हैं ।
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हमारा सम्मान हो‒इस चाहनाने ही हमारा अपमान किया है ।
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मनमें किसी वस्तुकी चाह रखना ही दरिद्रता है । लेनेकी
इच्छावाला सदा दरिद्र ही रहता है ।
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नाशवान्की इच्छा ही अन्तःकरणकी
अशुद्धि है ।
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मनुष्यको कर्मोंका त्याग नहीं करना है, प्रत्युत कामनाका
त्याग करना है ।
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मनुष्यको वस्तु गुलाम नहीं बनाती, उसकी इच्छा गुलाम बनाती
है ।
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यदि शान्ति चाहते हो तो कामनाका त्याग करो ।
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कुछ भी लेनेकी इच्छा भयंकर दुःख
देनेवाली है ।
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जिसके भीतर इच्छा है, उसको किसी-न-किसीके पराधीन होना ही
पड़ेगा ।
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अपने लिये सुख चाहना आसुरी, राक्षसी वृत्ति है ।
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जैसे बिना चाहे सांसारिक दुःख मिलता है, ऐसे ही बिना चाहे
सुख भी मिलता है । अतः साधक सांसारिक सुखकी इच्छा कभी न करे ।
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भोग और संग्रहकी इच्छा सिवाय पाप करानेके और कुछ काम नहीं
आती । अतः इस इच्छाका त्याग कर देना चाहिये ।
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अपने लिये भोग और संग्रहकी इच्छा करनेसे मनुष्य पशुओंसे भी
नीचे गिर जाता है तथा इसकी इच्छाका त्याग करनेसे देवताओंसे भी ऊँचे उठ जाता है ।
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जो वस्तु हमारी
है, वह हमें मिलेगी ही; उसको कोई दूसरा नहीं ले सकता । अतः कामना न करके अपने
कर्तव्यका पालन करना चाहिये ।
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जैसा मैं कहूँ, वैसा हो जाय‒यह इच्छा जबतक रहेगी, तबतक
शान्ति नहीं मिल सकती ।
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मनुष्य समझदार होकर भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंको चाहता
है‒यह आश्चर्यकी बात है !
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शरीरमें अपनी स्थिति माननेसे ही नाशवान्की इच्छा होती है
और इच्छा होनेसे ही शरीरमें अपनी स्थिति दृढ़ होती है ।
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कुछ चाहनेसे कुछ मिलता है और कुछ नहीं मिलता; परन्तु कुछ न
चाहनेसे सब कुछ मिलता है ।
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‒‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे
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