।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, वि.सं. २०७६ गुरुवार
          सब साधनोंका सार


 

अगर शरीर हमारे लिये होता तो उसके मिलनेपर हमें सन्तोष हो जाता, हमारे भीतर और कुछ पानेकी इच्छा नहीं रहती और शरीरसे कभी वियोग भी नहीं होता, वह सदा ही हमारे साथ रहता । परन्तु यह सबका अनुभव है कि शरीर मिलनेपर भी हमें सन्तोष नहीं होता, हमारी इच्छाएँ समाप्त नहीं होतीं, हमें पूर्णताका अनुभव नहीं होता और शरीर भी सदा हमारे साथ नहीं रहता, प्रत्युत हमारेसे बिछुड़ जाता है । इसलिये शरीर हमारे लिये नहीं है ।

यहाँ शंका हो सकती है कि जब शरीर हमारे लिये है ही नहीं, तो फिर शास्त्रोंमें मनुष्यशरीरकी महिमा क्यों गायी गयी है ? इसका समाधान है कि वास्तवमें वह महिमा शरीर (आकृति)-की नहीं है, प्रत्युत विवेककी है । आकृतिका नाम मनुष्य नहीं है, प्रत्युत विवेकशक्तिका नाम मनुष्य है । मनुष्यशरीरका मस्तिष्क विशेष प्रकारसे बना हुआ है, जिसमें सत्‌ और असत्‌, कर्तव्य और अकर्तव्यका विवेक विशेषरूपसे प्रकट हो सकता है । वैसा मस्तिष्क अन्य शरीरोंमें नहीं है । अन्य (पशु आदि) शरीरोंका विवेक उनके जीवन-निर्वाहतक सीमित रहता है । इसलिए मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है‒इस विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग मनुष्य ही कर सकता है ।

उपसंहार

शरीरको मैं, मेरा और मेरे लिये मानना विवेकविरोधी सम्बन्ध है । विवेकविरोधी सम्बन्धको रखते हुए कोई भी साधक सिद्धिको प्राप्त नहीं हो सकता । शरीरके साथ सम्बन्ध रखते हुए कोई कितनी ही तपस्या कर ले, समाधि लगा ले, लोक-लोकान्तरमें घूम आये अथवा यज्ञ, दान आदि बड़े-बड़े पुण्यकर्म कर ले, तो भी उसका बन्धन सर्वथा नहीं मिट सकता । परन्तु शरीरके सम्बन्धका त्याग होते ही बन्धन मिट जाता है और सत्य तत्त्वकी अनुभूति हो जाती है । इसलिए विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग किये बिना साधकको चैनसे नहीं बैठना चाहिये । अगर हम शरीरसे माने हुए सम्बन्धका त्याग न करें तो भी शरीर हमारा त्याग कर ही देगा । जो हमारा त्याग अवश्य करेगा, उसका त्याग करनेमें क्या कठिनाई है ? किसी भी मार्गका साधक क्यों न हो, उसे इस सत्यको स्वीकार करना ही पड़ेगा कि शरीर मैं नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है । कारण कि शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही मूल बन्धन अथवा दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है ।


शरीर संसारकी वस्तु है । संसारकी वस्तुको मैं, मेरा और मेरे लिये मान लेना बेईमानी है और इसी बेईमानीका दण्ड है‒जन्म-मरणरूप महान्‌ दुःख । इसलिये साधकका कर्तव्य है कि वह ईमानदारीके साथ संसारकी वस्तुको संसारकी ही मानते हुए उसे संसारकी सेवामें अर्पित कर दे और भगवान्‌की वस्तुको अर्थात्‌ अपने-आपको भगवान्‌का ही मानते हुए भगवान्‌के समर्पित कर दे । ऐसा करनेमें ही मनुष्यजन्मकी पूर्ण सार्थकता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे