अगर किसीको असली गुरु मिल भी जाय, तो भी वह स्वयं उनको गुरु, महात्मा मानेगा,
स्वयं उनपर श्रद्धा-विश्वास करेगा, तभी उससे लाभ होगा । अगर वह स्वयं श्रद्धा-विश्वास
न करे तो साक्षात् भगवान्के मिलनेपर भी उसका कल्याण नहीं होगा । दुर्योधनको भगवान्ने उपदेश दिया और पाण्डवोंसे सन्धि
करानेके लिये बहुत समझाया, फिर भी उसपर कोई
असर नहीं पड़ा । उसके माने बिना भगवान् भी कुछ नहीं कर सके । तात्पर्य है
कि खुदके मानने, स्वीकार करनेसे ही कल्याण होता है । अतः
गीता अपने-आपसे ही अपने-आपका उद्धार करनेकी प्रेरणा करती है‒ ‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’
(गीता ६/५) ।
ज्ञानमार्गमें तो गीताने आचार्य आदिकी उपासना बतायी है, पर कर्मयोग और
भक्तिमार्गमें गुरु आदिकी आवश्यकता नहीं बतायी । कारण कि जब किसी घटना, परिस्थिति आदिसे ऐसी भावना जाग्रत्
हो जाय कि ‘स्वार्थभावसे कर्म करनेपर अभावकी पूर्ति नहीं होती; स्वार्थभाव रखना
पशुता है, मानवता नहीं है’, तब मनुष्य स्वार्थभावका, कामनाका त्याग करके
सेवा-परायण हो जाता है । सेवा-परायण होनेसे उस कर्मयोगीको
अपने-आप तत्त्वज्ञान हो जाता है‒ ‘तत्स्वयं
योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति’ (गीता ४/३८) ।
कोई एक विलक्षण शक्ति है, जिससे सम्पूर्ण संसारका संचालन हो रहा है । उस
शक्तिपर जब मनुष्यका विश्वास हो जाता है, तब वह भगवान्की तरफ चल पड़ता है । भगवान्में लगे हुए ऐसे भक्तके अज्ञान-अन्धकारका नाश
भगवान् स्वयं कर देते है (गीता १०/११); और भगवान् स्वयं उसका
मृत्यु-संसार-सागरसे उद्धार करनेवाले बन जाते हैं (गीता १२/७) ।
भगवान्की यह एक विलक्षण उदारता, दयालुता है कि जो उनको नहीं मानता, उनका खण्डन
करता है अर्थात् नास्तिक है, उसके भीतर भी यदि तत्त्वको, अपने स्वरूपको जाननेकी
तीव्र जिज्ञासा हो तो उसको भी भगवत्कृपासे ज्ञान मिल जाता है ।
जिससे
प्रकाश मिले, ज्ञान मिले, सही मार्ग दीख जाय, वह गुरु-तत्त्व है । वह गुरु-तत्त्व
सबके भीतर विराजमान है । वह गुरु-तत्त्व जिस व्यक्ति, शास्त्र आदिसे प्रकट हो जाय,
उसीको अपना गुरु मानना चाहिये ।
वास्तवमें भगवान् ही सबके गुरु हैं; क्योंकि संसारमें जिस-किसीको ज्ञान,
प्रकाश मिलता है, वह भगवान्से ही मिलता है । वह ज्ञान जहाँ-जहाँसे, जिस-जिससे प्रकट होता है अर्थात्
जिस व्यक्ति, शास्त्र आदिसे प्रकट होता है, वह
गुरु कहलाता है; परन्तु मूलमें भगवान् ही सबके गुरु हैं
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