शरणागत भक्त‒‘मैं भगवान्का हूँ और
भगवान् मेरे हैं’ इस भावको दृढ़तासे पकड़ लेता है तो उसकी चिन्ता, भय, शोक, शंका
आदि दोषोंकी जड़ कट जाती है, अर्थात् दोषोंका आधार कट जाता है । क्योंकि सभी दोष भगवान्की विमुखतापर ही टिके हुए रहते हैं ।
भगवान्के शरण होकर ऐसी परीक्षा न करें कि जब मैं शरण हो
गया हूँ, तो ऐसे लक्षण मेरेमें नहीं हैं तो मैं भगवान्के शरण कहाँ हुआ ?
इस प्रकार सन्देह,
परीक्षा और विपरीत भावना‒इन तीनोंका न होना ही भगवान्के सम्बन्धको दृढ़तासे पकड़ना
है । शरणागत भक्तमें तो ये
तीनों ही बातें आरम्भमें ही मिट जाती हैं ।
मनुष्य जब भगवान्के शरण हो जाता है, तो वह प्राणियोंसे, सम्पूर्ण
विघ्न-बाधाओंसे निर्भय हो जाता है । उसको कोई भी भयभीत नहीं कर सकता । उसका कोई भी
कुछ बिगड़ नहीं सकता ।
जीवका उद्धार केवल
भगवत्कृपासे ही होता है । साधन करनेमें तो साधक निमित्तमात्र होता है, परन्तु
साधनकी सिद्धिमें भगवत्कृपा ही मुख्य है । इस दृष्टिसे भगवान्के साथ किसी तरहका सम्बन्ध जोड़ लिया जाय, वह जीवका कल्याण
करनेवाला है । जिन्होंने किसी प्रकार भी भगवान्से सम्बन्ध नहीं जोड़ा, उदासीन ही
रहे, वे तो भगवान्की प्राप्तिसे वंचित ही रह गये ।
भगवान्का अनन्त ऐश्वर्य है, माधुर्य है, सौन्दर्य है, भगवान्की अनेक
विभूतियाँ हैं, इन सबकी तरफ शरणागत भक्त देखता ही नहीं । वह तो केवल भगवान्के शरण
हो जाता है और उसका केवल एक भाव रहता है कि मैं केवल भगवान्के शरण हूँ और केवल
भगवान् मेरे हैं । शरणागतकी दृष्टि तो केवल भगवान्पर
ही रहनी चाहिये, भगवान्के गुण, प्रभाव आदिपर नहीं ।
प्राणी ज्यों-ज्यों दूसरा आश्रय छोड़ता जाता है,
त्यों-ही-त्यों भगवान्का आश्रय दृढ़ होता चला जाता है और ज्यों ही भगवान्का आश्रय
दृढ़ होता है, त्यों ही भगवत्कृपाका अनुभव होने लगता है । जब सर्वथा ही भगवान्का आश्रय ले लेता है तो भगवान्की
पूर्ण कृपा उसको प्राप्त हो जाती है ।
भगवान् गीता (१८/५७) में अर्जुनसे कहते हैं कि चित्तसे सम्पूर्ण कर्मोंको
मेरेमें अर्पण करके तू मेरे परायण हो जा और
समताका आश्रय लेकर मेरेमें चित्तवाला हो जा । इस श्लोकमें भगवान्ने चार
बातें बतायीं‒(१) सम्पूर्ण कर्मोंको मेरे अर्पित कर दे । (२) स्वयंको मेरे अर्पित
कर दे । (३) समताका आश्रय लेकर संसारका सम्बन्ध विच्छेद कर ले और (४) तू मेरे साथ
अटल सम्बन्ध कर ले । शरणागतके लिये ये बातें आवश्यक हैं ।
साधनकालमें जीवन-निर्वाहकी समस्या, शरीरमें रोग आदि विघ्न-बाधाएँ आती हैं
परन्तु उनके आनेपर भी भगवान्की कृपाका सहारा रहनेसे
साधक विचलित नहीं होता । उन विघ्न-बाधाओंमें भी उसको भगवान्की विशेष कृपा ही
दीखती है ।
नारायण !
नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे
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