।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
    फाल्गुन कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७६ बुधवार
          विजया एकादशी 
       वास्तविक सम्बन्ध प्रभुसे


भगवद्‌गीताके पन्द्रहवें अध्यायके सातवें श्लोकमें आया है

ममैवांशो जीवलोके      जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥

यह श्लोक विशेषरूपसे अपने कामका है । भगवान्‌ कहते हैं ‘मम एव अंशः’–यह जीवात्मा मेरा ही अंश है । और ‘मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’ मनसहित इन्द्रियाँ प्रकृतिमें स्थित हैं । इन दो बातोंसे यह अर्थ निकला कि मेरा अंश जीवात्मा मेरेमें स्थित है और प्रकृतिका अंश ‘मनः षष्ठानीन्द्रियाणि’ शरीर प्रकृतिमें स्थित हैं । परन्तु परमात्माका अंश होनेपर भी जीवात्मा परमात्माको प्राप्त क्यों नहीं करता ? इसका उत्तर है कि यह है तो परमात्मा अंश; पर इसने पकड़ा है विजातीय प्रकृतिकी वस्तुओंको, यही बन्धन है । यदि यह विजातीय वस्तुओंका त्याग कर दे तो आज ही मुक्त है । प्रकृति और प्रकृतिका कार्य हमारी वस्तु नहीं है । इनको हमने अपना मान लिया है । अतः हम बँधे हैं । यदि आज ही इनको अपना न मानें, तो मुक्त हो गये । मुक्त उसीसे हो सकते हैं जो हमारी चीज नहीं है । सूर्य प्रकाश और उष्णतासे कैसे मुक्त हो सकता है ? वह तो उसका स्वरूप है । ऐसे ही हम अपने स्वरूपसे कैसे मुक्त हो सकते हैं ? हमें, प्रकृति और प्रकृतिके कार्य जो हमारे नहीं हैं; पर जिन्हें हमने अपना माना है, उनसे मुक्त होना है और प्रभु जो हमारे हैं, उनके भक्त होना है । जो हमारी चीज है नहीं, उसे छोड़नेमें क्या बाधा है ! संसारसे विमुख हो जायँ तो हो गये मुक्त । और भगवान्‌के सम्मुख हो जायँ अर्थात् भगवान्‌ हमारे और हम भगवान्‌के–यह मान लिया तो हो गये भक्त । जबतक संसारको पकड़े रहोगे तबतक प्रभुको नहीं पकड़ सकते ।


इसमें एक बात समझनेकी  है कि चाहे संसारको कितना ही पकड़ो, आप संसारके साथ एक नहीं हो सकते । इसका कारण है कि संसार अर्थात् प्रकृति और प्रकृतिका कार्य जड़ है और आप परमात्माके चेतन अंश हैं । अतः आप (चेतन-) की एकता जड़ संसारसे न होकर चेतन परमात्मासे होगी । इस बातको आप हृदयसे स्वीकार कर लें । एक दूसरी बात और समझनेकी यह है कि जड़के साथ सम्बन्ध-विच्छेद होना सुगम है; क्योंकि जड़से सम्बन्ध-विच्छेद प्रतिक्षण हो रहा है । शरीर, धन, कुटुम्ब सभी विनाशकी ओर जा रहे हैं । पहले आप अपनेको बालक समझते थे, अब नहीं समझते । उस समय जो परिस्थिति-विचार थे, घटनाएँ थीं सब बदल गयीं और प्रतिक्षण बदल रही हैं । अतः संसारके सम्बन्धका त्याग कर दें । त्याग करना क्या ? कि इनको अपना न मानें । परन्तु परमात्माको अपना मानें, क्योंकि हम चेतन हैं और चेतन परमात्माके अंश हैं । परमात्माको हम छोड़ नहीं सकते और परमात्मा हमें नहीं छोड़ सकते । उनकी विस्मृति हो सकती है । उनसे विमुखता हो सकती है । अतः मान लें कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई ।’ इसमें क्या कठिनता है ? बस मान लें । आज और अभी कि भगवान्‌ मेरे हैं और मैं भगवान्‌का हूँ और संसार मेरा नहीं है और मैं संसारका नहीं हूँ । परन्तु जो सामग्री, शक्ति, सामर्थ्य हमें संसारसे मिली है, वह संसारकी सेवामें लगानी है । प्रह्लादजीका दृष्टान्त हमारे सामने है । उनका शरीर पिताके अंशसे उत्पन्न था । अतः शरीर उन्होंने पिताजीको दे दिया । वे शरीरको कष्ट दें, जहर पिलायें, साँपसे डँसवायें, पर्वतसे गिरायें, समुद्रमें डुबायें, कुछ भी करें तो प्रह्लादजीने चूँ नहीं की । शरीर मर जाय तो क्या ? क्योंकि यह माता-पिता और संसारका है । स्वयं परमात्माका अंश है । अतः अपने-आपको परमत्माको दे दें ।