।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
    फाल्गुन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७६ गुरुवार
       वास्तविक सम्बन्ध प्रभुसे


मैं आपको एक विशेष बात और बताता हूँ । यह शास्त्रोंमें है, पर छिपी हुई है । यह बात मुझे सन्त-महात्माओंकी कृपासे मिली है । यह विचित्र बात है कि प्रायः सत्संगियोंकी तथा साधकोंकी यह मान्यता रहती है और मेरी भी पहले यही आदत थी कि साधारण संसारकी वस्तुएँ भी बड़े परिश्रमसे, प्रयाससे मिलती हैं फिर भगवान्‌की प्राप्ति कैसे सुगमतापूर्वक हो सकती है । भगवान्‌की प्राप्तिके लिये बड़ा त्याग, बड़ी तपस्या, बड़ा संयम करना पड़ेगा । बड़े-बड़े योगियोंको जन्म-जन्मभर यत्न करते हुए भी प्राप्ति नहीं होती, फिर हमें कैसे होगी । कलियुग है, फिर इसमें प्रभु-प्राप्ति कैसे होगी । इस प्रकारकी मान्यताओंसे हम प्रभु-प्राप्तिमें स्वयं बाधा लगा लेते हैं । ये मान्यताएँ बिलकुल गलत हैं । हम परमात्माके हैं, परमात्मा हमारे हैं । संसार हमारा नहीं है, हम संसारके नहीं हैं । इस बातको आप हृदयसे मान लें, तो साधन बहुत सुगम हो जाता है । आप यह बात मान लो कि परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध अखण्ड है, अटूट है, नित्य है, निर्विकार है, आपको प्रभु-प्राप्ति हो जायगी, क्योंकि प्राप्ति तो है, केवल विस्मृति हुई है ।

भगवान्‌ स्वयं कहते हैं‒

न वेदयज्ञाध्ययनिर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।
(गीता ११/४८)

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
(गीता ११/५३)

मैं वेद, यज्ञ, दान, तप, आदि साधनोंसे प्राप्त नहीं हो सकता । जड़ शरीररूपी साधनके द्वारा चेतनकी प्राप्ति कैसे होगी ? परन्तु साधारणतया व्याख्यानोंमें, उपदेशोंमें यही सुननेको मिलता है कि प्रभु-प्राप्ति अति कठिन है । अतः इसके विपरीत सुनना नहीं चाहते । हम तीर्थयात्रामें नाथद्वारा गये । वहाँ मैंने व्याख्यान दिया । उसमें यह कह दिया कि भगवान्‌के शरण होना यह है कि भगवान्‌के शरण होना ही नहीं । क्योंकि भगवान्‌की शरण तो हम सदा ही हैं, केवल पता नहीं था इस बातका । भगवान्‌ने तो शरण ले रखा है । ऐसा कह दिया । तो वहाँके लोगोंने समझा कि मैं शरणागतिका विरोध कर रहा हूँ । मेरी वैसी भावना नहीं थी । मैंने तो वास्तविक बात कही । जब हम मन्त्र लेते हैं तो गुरुजी हमें यह बता देते हैं कि हमारा भगवान्‌के साथ सम्बन्ध है । वास्तवमें भगवान्‌के साथ हमारा सम्बन्ध नित्य है, अटूट है और संसार तथा शरीरके साथ हमारा सम्बन्ध है नहीं, केवल हमने मान लिया है । भगवान्‌से हम विमुख हुए हैं और संसारके सम्मुख हुए हैं । भगवान्‌ हमारे हैं तथा हम भगवान्‌के हैं यह विस्मृति हुई है । परन्तु संसार तथा शरीरका सहारा लिया है, उनकी शरण हुए हैं । यह सहारा रहनेवाला नहीं है । शरीर और संसारके सहारेको कबतक पकड़े रह सकोगे ? यह छूटेगा; आप कितना ही पकड़नेकी कोशिश करो, पकड़ सकोगे नहीं । परमात्माको आप छोड सकते नहीं, आप परमात्माके साथ हरदम हैं और आपके साथ परमात्मा हरदम हैं । केवल विस्मृति हुई है, भूल हुई है । गीताजीका उपदेश सुनाकर भगवान्‌ने अर्जुनसे पूछा कि क्या इस गीताशास्त्रको तूने एकाग्रचित्तसे श्रवण किया और क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया ? तो अर्जुन बोले‒ ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ ‒मोह नष्ट हो गया और स्मृति हो गयी । याद आ गयी कि मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं, इसमें कोई नया ज्ञान नहीं हुआ । हम भगवान्‌के हैं, संसारके नहीं । हमारा कहा जानेवाला हमारे पास जो कुछ है, शरीर, धन, बल, बुद्धि, योग्यता आदि सब कुछ संसारसे लिया है, इसे संसारकी सेवामें लगा दो । उससे अपनापन उठा लो और उनसे आशा मत करो, तो आप मुक्त हो गये । भगवान्‌ हमारे हैं और हम भगवान्‌के हैं तो यह भक्ति हो गयी । इसमें देरीका काम नहीं है । बस सरल बात है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


–‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे