Feb
02
उपनिषदोंमें आता है कि ‘एकाकी न
रमते’ । इसका सीधी-सादी भाषामें अर्थ होता है कि भगवान्का अकेलेमें मन
नहीं लगा । इसलिये उन्होंने सृष्टिकी रचना की । ‘मैं एक ही बहुत रूपोंसे हो जाऊँ’‒ऐसे
संकल्पसे भगवान्ने मनुष्योंका निर्माण किया । इसका तात्पर्य यह दिखता है कि मनुष्योंका निर्माण भगवान्ने
केवल अपने लिये किया है । संसारकी रचना
चाहे मनुष्यके लिये की हो, पर मनुष्यकी रचना तो केवल अपने लिये ही की है । इसका
क्या पता ? भगवान्ने मनुष्यको ऐसी योग्यता दी है, जिससे
वह तत्त्वज्ञानको प्राप्त करके मुक्त हो सकता है; भक्त हो सकता है; संसारकी सेवा
भी कर सकता है और भगवान्की सेवा भी कर सकता है । यह संसारकी आवश्यकताकी पूर्ति भी
कर सके और भगवान्की भूख भी मिटा सके, भगवान्को भी निहाल कर सके‒ऐसी सामर्थ्य
भगवान्ने मनुष्यको दी है ! और किसीको भी ऐसी योग्यता नहीं दी, देवताओंको
भी नहीं दी । भगवान्को
भूख किस बातकी है ? भगवान्को प्रेमकी भूख है । प्रेम भगवान्को प्रिय लगता है ।
प्रेम एक ऐसी विलक्षण चीज है, जिसकी आवश्यकता सबको रहती है ।
एक आसक्ति होती है और एक प्रेम होता
है । किसीसे हम अपने लिये स्नेह करते हैं, वह ‘आसक्ति’ होती है, राग होता है । रागसे
ही कामना, इच्छा, वासना होती है, जो पतन करनेवाली, नरकोंमें ले जानेवाली है । जिसमें दूसरोंको सुख देनेका भाव होता है, वह ‘प्रेम’ होता है ।
आसक्तिमें लेना होता है और प्रेममें दूसरोंको देना होता है । दूसरोंको सुख
देनेकी ताकत मनुष्यमें है । भगवान्ने मनुष्यको इतनी ताकत दी है कि वह
दुनियामात्रका हित कर सकता है और अपना कल्याण कर सकता है । इतना ही नहीं, मनुष्य
भगवान्की आवश्यकताकी पूर्ति भी कर सकता है, भगवान्के माँ-बाप भी बन सकता है,
भगवान्का गुरु भी बन सकता है, भगवान्का मित्र भी बन सकता है और भगवान्का इष्ट
भी बन सकता है ! अर्जुनको भगवान् कहते हैं‒‘इष्टोऽसि मे
दृढमिति’ (गीता १८/६४) ।
जैसे लड़का अलग हो जाय तो माँ-बाप चाहते हैं कि वह
हमारे पास आ जाय, ऐसे ही यह जीव भगवान्से अलग हो गया है, इसलिये भगवान्को भूख है
कि यह मेरी तरफ आ जाय ! इस भूखकी पूर्ति मनुष्य ही कर सकता है, दूसरा कोई नहीं ।
मनुष्य ही भगवान्से प्रेम कर सकता है । देवता तो भोगोंमें लगे हैं, नारकीय जीव
बेचारे दुःख पा रहे हैं, चौरासी लाख योनियोंवाले जीवोंको पता ही नहीं कि क्या करें
और क्या नहीं करें ? इतना ऊँचा अधिकार प्राप्त करके भी
मनुष्य दुःख पाता है तो बड़े भारी आश्चर्यकी बात है ! होश ही नहीं है कि मेरेमें
कितनी योग्यता है और भगवान्ने मेरेको कितना अधिकार दिया है ! मैं कितना
ऊँचा बन सकता हूँ, यहाँतक कि भगवान्का भी मुकुटमणि बन सकता हूँ ! आप कृपा करके
ध्यान दो कि कितनी विलक्षण बात है ! जितने भक्त हुए हैं मनुष्योंमें ही हुए हैं और
इतने ऊँचे दर्जेके हुए हैं कि भगवान् भी उनका आदर करते हैं ! लोग संसारके आदरको ही बड़ा समझते हैं, पर भक्तोंका आदर भगवान्
करते हैं, कितनी विलक्षण बात है ! सारथी बन जायँ भगवान् ! नौकर बन जायँ
भगवान् ! झूठन उठायें भगवान् ! घरका काम-धंधा करें भगवान् ! जिस तरहसे माता अपने बच्चेका पालन करके प्रसन्न होती है, इसी
तरहसे भगवान् भी अपने भक्तका काम करके प्रसन्न होते हैं ।
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