साधकोंके सम्मुख दो बातें विशेषरूपसे आती हैं‒एक संसारकी और
दूसरी परमात्माकी । संसार नाशवान् है और परमात्मा अविनाशी हैं । संसारके सम्बन्धसे
दुःख-ही-दुःख होता है और परमात्माके सम्बन्धसे आनन्द-ही-आनन्द होता है, दुःखका लेश
भी नहीं होता । संसारका आश्रय कभी टिकता ही नहीं और परमात्माका आश्रय कभी मिटता
नहीं है । इन बातोंको हम सन्त-महापुरुषोंसे सुनते हैं,
वेद, पुराणादि शास्त्रोंमें पढ़ते हैं और स्वयं मानते भी हैं, परन्तु ऐसा मानते हुए
भी हमारा दुःख दूर क्यों नहीं हो रहा है ? हमें परम आनन्दकी प्राप्ति क्यों नहीं
हो रही है ? हमें भगवान् क्यों नहीं मिल रहे हैं ?
अभी जैसे ‘हरिः शरणम्, हरिः शरणम्’ कीर्तन हुआ तो भगवान्के
चरणोंकी शरण लेना बहुत ही बढ़िया बात है, क्योंकि संसारका आश्रय टिकेगा नहीं,
भगवान्का आश्रय ही टिकेगा । ये बातें सुनते हैं, समझते हैं, मानते हैं, फिर भी वह गुत्थी कहाँ उलझी हुई है जो सुलझती नहीं
है । इस समस्यापर हमें गंभीरतापूर्वक विचार करना है ।
इस विषयमें अनेक बातें कही जा सकती हैं, परन्तु एक बातपर हमें
विशेष ध्यान देना है । वह यह है कि बातें सुनने, पढ़नेसे
केवल बौद्धिक या बातूनी ज्ञान होता है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें अपनी उत्कट
अभिलाषा ही काम आती है, बौद्धिक या बातूनी ज्ञान कुछ काम नहीं आता । जिस दिन हमें
संसारका सम्बन्ध सुहायेगा नहीं और हम परमात्माके बिना रह सकेंगे नहीं, उसी दिन
हमें परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ।
संसार
असत्य है‒ऐसा मानते हुए भी यदि हम सांसारिक सुख-भोगोंको भोगते रहेंगे तो उससे हमें
कोई लाभ नहीं होगा ।
परमात्मा सत्य हैं, उनका नाम सत्य हैं‒ऐसा कहनेमात्रसे कोई विशेष लाभ नहीं होगा ।
उलझन ज्यों-की-त्यों ही बनी रहेगी । इस उलझनको तभी मिटाया जा सकता है, जब हमारी वर्तमान समस्या
यही बन जाय कि संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद कैसे हो ? परमात्माकी प्राप्ति कैसे हो ?
यह ठीक है कि हम परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं, तत्त्वज्ञान
चाहते हैं, मुक्ति चाहते हैं; भगवान्के दर्शन चाहते हैं, भगवत्प्रेम चाहते हैं;
परन्तु हमारी इस चाहकी सिद्धिमें एक बहुत बड़ी बाधा हमारी
यह मान्यता है कि ‘भविष्यमें काफी समयके बाद‒भगवत्प्रेम होगा; समय लगेगा; तब कहीं
भगवान् दर्शन देंगे; समय पाकर ही तत्त्वज्ञान होगा, परमात्माकी प्राप्तिमें तो
समय लगेगा’ इत्यादि । यह जो भविष्यकी आशा है कि फिर होगा, वही परमात्मप्राप्तिमें
सबसे बड़ी बाधा है ! सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिके लिये तो भविष्यकी आशा
करना उचित है; क्योंकि सांसारिक पदार्थ सदा सब जगह विद्यमान नहीं है, परन्तु
सच्चिदानन्दघन परमात्मा तो सम्पूर्ण देश, काल, वस्तु और व्यक्तिमें
विद्यमान हैं, उनकी प्राप्तिमें भविष्यका क्या काम ? इस तथ्यकी ओर प्रायः साधकोंका ध्यान ही नहीं जाता । वे
यही मान बैठते हैं कि ‘इतना साधन करेंगे; इतना नाम जप
करेंगे; ऐसी-ऐसी वृत्तियाँ बनेंगी; इतना अन्तःकरण शुद्ध होगा, इतना वैराग्य होगा;
भगवान्में इतना प्रेम होगा; ऐसी अवस्था होगी, ऐसी योग्यता होगी‒तभी कहीं
परमात्माकी प्राप्ति होगी ! इस प्रकारकी अनेक आडें (रुकावटें) साधकोंने स्वयं ही
लगा रखी हैं यही महान् बाधा है ।
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