।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७७ बुधवार
देवशयनी एकादशी-व्रत
गीताका ज्ञेय-तत्त्व


वही सर्वव्यापक, सर्वाधिष्ठान, सर्वरूप परमात्मा है, वही सर्वथा जाननेयोग्य है । वही परब्रह्म परमात्मा, जहाँ जगत् तथा जगदाकाररूपमें परिणत होनेवाली प्रकृतिका अत्यन्त अभाव है, वहाँ ‘निर्गुण-निराकार’ कहलाता है । उसी परमात्माको जब प्रकृतिसहित जगत्‌के कारणरूपमें देखते हैं, तब वह सगुण निराकाररूपसे समझमें आता है तथा जब उसे हम सम्पूर्ण संसारके स्रष्टा, पालक और संहारकके रूपमें देखते हैं, तब वही ब्रह्मा, विष्णु और महादेव–इन त्रिदेवोंके रूपमें ज्ञात होता है । वही परमात्मा जब धर्मका नाश और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब साधुओंकी रक्षा, दुष्टोंके विनाश और धर्मकी स्थापनाके लिये राम-कृष्ण आदि विविध रूपोंमें अवतार लेते हैं तथा संत-मतके अनुसार वे ही परमात्मा ज्योतिरूपमें साधकोंके अनुभवमें आते हैं । उनका वर्णन संतोंने पतिरूपमें तथा अमरलोकके अधिपति रूपमें किया है तथा यह भी बतलाया है कि ‘वे ही हंसरूप संतोंको अमरलोकसे संसारमें भक्तिका प्रचार तथा संसारका उद्धार करनेके लिये भेजते हैं ।’ वे ही दिव्यवैकुण्ठाधिपति, दिव्यकैलासाधिपति, दिव्यगोलोकाधिपति, दिव्यसाकेताधिपति, दिव्यधामके अधिपति, सत्यलोकके अधिपति आदि विभिन्न नामोंसे पुकारे जाते हैं तथा इनकी प्राप्तिको ही परमात्माकी प्राप्ति, मोक्षकी प्राप्ति, परमस्थानकी प्राप्ति, परमधामकी प्राप्ति, आद्यस्थानकी प्राप्ति, परम शान्तिकी प्राप्ति, अनामय पदकी प्राप्ति, निर्वाण-परम शान्तिकी प्राप्ति आदि-आदि अनेक नामोंसे गीतामें तथा अन्यान्य ग्रन्थोंमें निरूपण किया गया है । वही सर्वोपरि परमतत्त्व श्रीगीताजीका ज्ञेय-तत्त्व है, जिसकी प्राप्तिके स्वरूपका वर्णन करते हुए भगवान्‌ कहते हैं–

यं लब्ध्वा चापरं  लाभं   मन्यते  नाधिकं  ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
                                             (गीता ६/२२)

–जिस स्थितिकी प्राप्तिके बाद वह कभी विचलित नहीं होता । मनुष्यके विचलित होनेके दो कारण हैं–एक तो जब वह प्राप्त वस्तुसे अधिक पानेकी आशा करता है; दूसरे, जहाँ वह रहता है, वहाँ यदि कष्ट आ पड़ता है तो वह विचलित होता है । इन दोनों कारणोंका निराकरण करते हुए भगवान्‌ कहते हैं कि उस ज्ञेय-तत्त्वकी प्राप्तिसे बढ़कर कोई लाभ नहीं है । उसकी दृष्टिमें भी उससे बढ़कर कोई लाभ नहीं दीखता; क्योंकि उससे बढ़कर कोई तत्त्व है ही नहीं तथा तत्त्वज्ञ महापुरुषोंमें सुखका भोक्तापन रहता नहीं । अतएव व्यक्तित्वके अभावमें भारी-से-भारी दुःख आ पड़नेपर भी विचलित कौन हो और कैसे हो ? वह महापुरुष तो सदा निर्विकार-रूपमें स्थित रहता है । वह गुणातीत हो जाता है । भगवान्‌ कहते हैं–

प्रकाशं च प्रवृत्तिं  च   मोहमेव  च  पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥
उदासीनवदासीनो    गुणैर्यो  न  विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव    योऽवातिष्ठति  नेङ्गते ॥
समदुःखसुखः  स्वस्थः   समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो  मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी   गुणातीतः  स  उच्यते ॥
                                      (गीता १४/२२-२५)

अथात् हे अर्जुन ! जो पुरुष सत्त्वगुणके कार्यरूप प्रकाशको, रजोगुणके कार्यरूप प्रवृत्तिको तथा तमोगुणके कार्यरूप मोहको भी न तो प्रवृत्त होनेपर बुरा मानता है और न निवृत्त होनेपर उनकी आकांक्षा करता है; जो मनुष्य उदासीन (साक्षी)-के समान स्थित हुआ गुणोंके द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा ‘गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं’–यों समझकर जो सच्‍चिदानन्दघन परमात्मामें एकीभावसे स्थित रहता है एवं उस स्थितिसे चलायमान नहीं होता; जो निरन्तर आत्मभावमें स्थित हुआ सुख-दुःखको समान समझता है तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्णमें समान भाव रखता है, धैर्यवान है, प्रिय और अप्रियको समान देखता है तथा अपनी निन्दा और स्तुतिमें समान भाववाला है; जो मान और अपमानको समान समझता है, मित्र और शत्रुके पक्षमें समभाव रखता है, वह सम्पूर्ण आरम्भोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित पुरुष गुणातीत कहलाता है ।

गीताके ज्ञेय-तत्त्वकी अनुभूतिका यही फल है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


–‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे