।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७७ गुरुवार
गीताका अनासक्तियोग


‘योग’ शब्दके कई अर्थ होते हैं । व्याकरणकी दृष्टिसे ‘योग’ शब्द तीन धातुओंसे बनता है–

(१)‘युजिर योगे’–सम्बन्ध अर्थात् भगवान्‌के साथ नित्य-सम्बन्ध ।

(२)‘युज समाधौ’–समाधिमें स्थिति ।

(३)‘युज संयमने’–संयमन अर्थात् सामर्थ्य, प्रभाव ।

इस प्रकार ‘योग’ शब्दके भीतर सम्बन्ध, समाधि (एकाग्रता) और सामर्थ्य–तीनों बातें हैं । यद्यपि गीतामें ‘योग’ शब्द उपर्युक्त तीनों अर्थोंमें आया है, तथापि मुख्यरूपसे यह भगवान्‌के साथ नित्य-सम्बन्ध (नित्ययोग) के अर्थमें आया है–

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंगितम् ।
                                                   (६/२३)

‘जिसमें दुःखोंके संयोगका वियोग है, उसको योग नामसे जानना चाहिये ।’

संसारके जितने भी सम्बन्ध हैं, वे सब-के-सब बिछुड़नेवाले हैं, संसारके सब संयोगोंका वियोग होनेवाला है । अभी जो संयोग दीखता है, वह पहले नहीं था और आगे नहीं रहेगा, बीचमें ही संयोग दीखता है । इसमें संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है । संसारके साथ वियोग नित्य है और परमात्माके साथ योग नित्य है । अतः संसारके साथ वियोग ही परमात्माके साथ योग है और परमात्माके साथ योग ही संसारके साथ वियोग है । हम मानें चाहे न मानें, स्वीकार करें चाहे न करें, दृष्टि डालें चाहे न डालें; परन्तु भगवान्‌के साथ हमारा सम्बन्ध नित्य है । उस नित्य-सम्बन्धका हमें अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ? कारण कि जिनका वियोग नित्य है, उसमें हमने आसक्ति कर ली । हम जानते हैं कि शरीर, धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब-परिवार, आदर-सत्कार, मान-अपमान आदि रहनेवाले नहीं हैं, प्रत्युत जानेवाले हैं, इनका वियोग निश्चित है, फिर भी हमने भूलसे इन चीजोंमें प्रियता पैदा कर ली अर्थात् इनमें आसक्ति कर ली कि इनके साथ हमारा सम्बन्ध नित्य बना रहे । यदि इन चीजोंमें हमारी अनासक्ति हो जाय तो योगका अर्थात् परमात्माके साथ हमारे नित्य-सम्बन्धका अनुभव हो जायगा । उस परमात्माके साथ कभी किसी जीवका वियोग हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, होना सम्भव ही नहीं । अतः ‘अनासक्तियोग’ का अर्थ हुआ–जिसके साथ कभी हमारा संयोग हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, होना सम्भव ही नहीं, उस संसारसे अनासक्त होकर योग (परमात्माके नित्य-सम्बन्ध)-का अनुभव हो जाना ।

आसक्ति मिटनेपर संसारके अभाव (नित्यवियोग)-का और परमात्माके भाव (नित्ययोग)-का अनुभव हो जाता है । गीतामें आया है–

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
                                                   (२/१६)

‘असत्‌का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है ।’


तात्पर्य है कि असत्-वस्तुका अभाव नित्य है और सत्-वस्तुका भाव नित्य है । अभी भले ही संसारका संयोग दीखे, पर अन्तमें वह वियोगमें परिणत होगा । परन्तु परमात्माके साथ वियोग दीखते हुए भी उनके साथ नित्ययोग है । नाशवान्‌के साथ जो मान हुआ संयोग है, वह बना रहे–यह इच्छा ही नित्ययोगके अनुभवमें बाधक है ।