।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.२०७७ शुक्रवार
गीताका अनासक्तियोग


विचार करें, एक समय हम अपनेको बालक कहते थे, पर उस बालकपनके साथ हमारा स्वतः वियोग हो गया, हमने वियोग किया नहीं । यह कोई नहीं कह सकता कि अमुक तारीखको मैंने बालकपन छोड़ दिया । जैसे बालकपनका स्वतः वियोग हो गया, ऐसे ही जवानी और वृद्धावस्थाका भी स्वतः वियोग हो जायगा । इस प्रकार प्रत्येक देश, काल, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिका प्रतिक्षण स्वतः वियोग हो रहा है । परन्तु आसक्तिके कारण इनके साथ संयोग दीख रहा है ।

जिनका वियोग अवश्यम्भावी है, उनको हम अपना मान लेते हैं, उनसे हमारा मन चिपक जाता हैं, उनको हम नित्य रखना चाहते हैं, उनमें प्रियता पैदा हो जाती है, उनमें मन खिंचता है–यह ‘आसक्ति’ कहलाती है । यही आसक्ति जब भगवान्‌में हो जाती है, तब इसको ‘प्रेम’ कहते हैं । आसक्ति होनेसे संसार नित्य दीखता है और प्रेम होनेसे परमात्मा नित्य दीखते हैं । आजकल लोगोंने संसारकी आसक्तिका नाम ‘प्रेम’ रख दिया है, यह बहुत बड़ी गलती है । प्रेम सदा अविनाशीमें ही होता है, नाशवान्‌में नहीं ।

जिन शरीर, कुटुम्बी, अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिके साथ हम अपना सम्बन्ध मानते हैं, वह सम्बन्ध पहले भी नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी उसका निरन्तर वियोग हो रहा है । इस निरन्तर होनेवाले वियोगमें कभी नागा नहीं होता, कभी छुट्टी नहीं होती, कभी अनाध्याय नहीं होता, कभी विश्राम नहीं होता । ऐसा होनेपर भी इनके साथ संयोग दीखता है–यही आसक्ति है । यह आसक्ति ही बाँधनेवाली है–

कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥
                                                           (गीता १३/२१)

‘गुणोंका संग ही इस मनुष्यके ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बनता है ।’

तात्पर्य है कि गुणोंका संग, आसक्ति, प्रियता ही हमें बाँधनेवाली है, परमात्मासे वियोगका अनुभव करानेवाली है ।

आसक्तिके ही कारण हमें सुख, दुःख, अनुकूलता और प्रतिकूलता–दोनों अलग-अलग दीखते हैं । आसक्ति मिटनेपर दोनों समान हो जाते हैं; क्योंकि सुख भी ठहरनेवाला नहीं है और दुःख भी ठहरनेवाला नहीं है । सुख आते हुए अच्छा लगता है, जाते हुए बुरा लगता है और दुःख आते हुए बुरा लगता है, जाते हुए अच्छा लगता है । अतः दोनोंमें कोई भेद नहीं है । एक श्लोक आता है–

शत्रुर्दहति   संयोगे  वियोगे मित्रमप्याहो ।
उभयोर्दुःखदायित्वे को भेदः शत्रुमित्रयोः ॥


‘शत्रु संयोगमें दुःख देता है और मित्र वियोगमें दुःख देता है; दोनों ही दुःख देनेवाले हैं, अतः दोनोंमें क्या भेद हुआ ?’